वसुधा के अंचल पर
यह क्या कन-कन सा गया बिखर ! जल शिशु की चंचल क्रीड़ा-सा जैसे सरसिज दल पर ।
लालसा निराशा में दलमल वेदना और सुख में विह्वल यह क्या है रे मानव जीवन! कितना था रहा निखर।
मिलने चलते अब दो कन आकर्षण -मय चुम्बन बन दल की नस-नस में बह जाती लघु-मघु धारा सुन्दर।
हिलता-डुलता चंचल दल, ये सब कितने हैं रहे मचल कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते कब रूकती लीला निष्ठुर ।
तब क्यों रे, फिर यह सब क्यों यह रोष भरी लीला क्यों ? गिरने दे नयनों से उज्ज्वल आँसू के कन मनहर वसुधा के अंचल पर ।
- जयशंकर प्रसाद
[ हंस, जनवरी १९३३] |