उमड़ा करती है शक्ति, वहीं दिल में है भीषण दाह जहाँ है वहीं बसा सौन्दर्य सदा सुन्दरता की है चाह जहाँ उस दिव्य सुन्दरी के तन में उसके कुसुमित मृदु आनन में इस रूप राशि के स्वप्नों को देखा करता था शाहजहाँ
वह शाहजहाँ की साम्राज्ञी चलती थी जो नित फूलों में था शाहजहाँ का हृदय बसा जिसकी आँखों के कूलों में सहसा राणा को छोड़ गयी वह स्वर्ग सदन की ओर गयी नृप सिर धुनता था गिर-गिर कर प्रस्तर खंडों में, धूलों में
वह सूना लख कर राजमहल सहसा पागल बन जाता था उठता था स्मरण हृदय से जो नयनों तक जल बन जाता था द्विगुणित गति से बढ़ता था दुख नरपति की आँखों के सन्मुख सुन्दरतर मृदुल कल्पना का झट ताजमहल बन जाता था
स्मारक यह केवल नहीं मधुर आशा का है निर्वाण यहाँ इन प्रस्तर खंडों को छू कर देखो इनमें है प्राण यहाँ रानी की स्मृति के सायक थे राजा के अश्रु सहायक थे अथवा किसकी थी शक्ति जो कि करता इसका निर्माण यहां
है धवल जलद के शुभ्र खंड! तुम निकल पड़े कब भूतल से तुम शत अतृप्त अभिलाषा से, कढ़ते क्षिति के अन्तस्तल से तुम मुगल प्रेयसी की आशा उस वैभव की नीरव भाषा साकार शान्ति से मौन खड़े लिपटे ज्योत्स्ना के अंचल से
वह क्षीरसिन्धु का रूप हिमालय का धावल्य चुराते से जग की शत शत सुन्दरता को नित ढ्ढू-ढूँढू अपनाते से कुछ धवल पंख ऊपर ताने ले कर मणिमय चित्रित गाने तुम माया के मृदु राजहंस हो अमरपुरी को जाते से
कल वहाँ झोपड़ी थी टूटी, है आज वहाँ पर राजमहल कल धूलि राशि बन जाता है जो है नभचुम्बी आज महल पर तुम सदैव निर्भ्रान्त रहो तुम सुखी रहो तुम शान्त रहो तुम अमर रहो संभ्रान्त रहो वसुधा के गौरव! ताजमहल!
- कमला प्रसाद मिश्र [फीजी के राष्ट्रीय कवि]
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