अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
सपने अगर नहीं होते | ग़ज़ल  (काव्य)    Print  
Author:उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
 

मन में सपने अगर नहीं होते,
हम कभी चाँद पर नहीं होते।

सिर्फ जंगल में ढूँढ़ते क्यों हो?
भेड़िए अब किधर नहीं होते।

जिनके ऊँचे मकान होते हैं,
दर-असल उनके घर नहीं होते।

प्यार का व्याकरण लिखें कैसे,
भाव होते हैं स्वर नहीं होते।

कब की दुनिया मसान बन जाती,
उसमें शायर अगर नहीं होते।

वक्त की धुन पे नाचने वाले
नामवर हों, अमर नहीं होते।

मूल्य जीवन के क्या कुँवारे थे?
उनके क्यों वंशधर नहीं होते?

किस तरह वो खुदा को पाएंगे,
खुद से जो बे-ख़बर नहीं होते।

पूछते हो पता ठिकाना क्या,
हम फ़कीरों के घर नहीं होते।

- उदयभानु 'हंस', राजकवि हरियाणा
  साभार-दर्द की बांसुरी [ग़ज़ल संग्रह]

 

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