मित्रता का बोझ किसी पहाड़-सा टिका था कर्ण के कंधों पर पर उसने स्वीकार कर लिया था उसे किसी भारी कवच की तरह हाँ, कवच ही तो, जिसने उसे बचाया था हस्तिनापुर की जनता की नज़रों के वार से जिसने शांत कर दिया था द्रौणाचार्य और पितामह भीष्म को उस दिन वह अर्जुन से युद्ध तो नहीं कर पाया पर सारथी पुत्र राजा बन गया था अंग देश का दुर्योधन की मित्रता चाहे जितनी भारी हो पर सम्मान का जीवन तो यहीं से शुरु होता है!
कर्ण बैठा था एक पेड़ की छाया में कुछ सुस्ताते हुए किसी गहन चिंतन में निमग्न युद्ध अवश्यम्भावी है अब लड़ना ही होगा अर्जुन को अब कौन कहेगा ----- तुम नहीं लड़ सकते अर्जुन से तुम राधेय हो, एक सारथी के पुत्र, कुल गौत्र रहित अब अंगराज कर्ण लड़ेगा अर्जुन से सरसराई पास की झाड़ी, चौंका कर्ण प्रतीत हुआ कोई स्त्री लिपटी है श्याम वस्त्र में उसने आग्रह किया कर्ण से आओ मेरे साथ कर्ण चकित हुआ पल भर को पर चल दिया उसके पीछे किसी अज्ञात पाश में आबद्ध वह तो कुंती थीं! कर्ण आश्चर्य से भर उठा आप यहाँ पांडव माता?
मैं तुम्हारी भी माँ हूँ कर्ण, कुंती है मेरा नाम जड़वत खड़ा था कर्ण उसने कुंती को गौर से देखा और कहा --- मुझे लगा था उस दिन हस्तिनापुर में जब तुम मुझे देखकर मूर्छित हो गई थी पर नहीं जानता था आज इस तरह मिलने आओगी!
मैं अभागी हूँ कर्ण विवाह से पहले तुम आए मेरे गर्भ में मैं कैसे पालती अवैध संतान?
संतान अवैध होती है या सम्बंध मैं अच्छी तरह से जानता हूँ पाण्डु-पत्नी तुमने अपने पाप को छिपाने के लिए मुझे बहा दिया बहते जल में एक माँ ने पल भर को भी नहीं सोचा कि इस बालक को निगल जाएगा कोई मगरमच्छ उठा कर ले जाएगा कोई गिद्ध या यह डूब जाएगा नदी की लहरों में तुम मुझे पाल सकती थी दुर्वासा के आश्रम में किसी ऋषिकुमार की तरह तुम मुझे दे सकती थी कोई सम्मानजनक कुलनाम तुम स्त्री थी ही नहीं कुंती, माँ कैसे बनती?
मुझे क्षमा का दो कर्ण मैं लज्जित हूँ अपने कृत्य पर! नहीं देवि, मैं सूर्य का पुत्र हूँ, यह जान गया हूँ अपने अनुभव से और यह भी जान गया हूँ कि तुम आज स्नेह जताने आई हो किसी स्वार्थ से तुम चाहती तो उस दिन हस्तिनापुर में भी मुझे स्वीकार सकती थी पुत्र पर तुम्हें सूर्य से उत्तम पुरुष लगे इंद्र तुम सिर्फ अर्जुन के विषय में सोचती हो वही है तुम्हारा पुत्र बोलो क्या माँगने आई हो कर्ण ने आज तक किसी भिखारी को खाली नहीं लौटाया!
लज्जित होकर कुंती ने कहा मैं नहीं चाहती युद्ध में मेरे पुत्रों का क्षय हो! युद्ध विकास के लिए कब लड़े जाते हैं माते! क्षय तो होता ही है, राजपुत्रों का हो या सैनिकों का मैं द्रवित हूँ, प्रभावित नहीं हूँ आपके निवेदन से कर्ण या अर्जुन में से किसी एक को तो मरना ही होगा पर भरोसा करो, मैं नहीं मारूँगा तेरे किसी अन्य पुत्र को तुम तब भी पाँच पाण्डवों की माँ ही कहलाओगी!
अब जाओ माते कुंती मुझे करने दो युद्ध से जुड़े अनेक कार्य मैं जानता हूँ युद्ध में मेरे तीर से बिंधते हुए किसी के पास अवकाश नहीं होगा मेरा कुलनाम पूछने का कर्ण लड़ते हुए ही जिया है और लड़ते हुए ही मरेगा।
-राजेश्वर वशिष्ठ ['सुनो, वाल्मीकि' किताबनामा प्रकाशन नई दिल्ली ] |