गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं, तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं; शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का, शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को, प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे, (अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं, शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
- रामधारीसिंह दिनकर |