रँग गये जैसे पलाश; कुसुम किंशुक के, सुहाए, कोकनद के पाए प्राण, ख़ून की होली जो खेली ।
निकले क्या कोंपल लाल, फाग की आग लगी है, फागुन की टेढ़ी तान, ख़ून की होली जो खेली ।
खुल गई गीतों की रात, किरन उतरी है प्रात की; हाथ कुसुम-वरदान, ख़ून की होली जो खेली ।
आई सुवेश बहार, आम-लीची की मंजरी; कटहल की अरघान, ख़ून की होली जो खेली ।
विकच हुए कचनार, हार पड़े अमलतास के ; पाटल-होठों मुसकान, ख़ून की होली जो खेली ।
- निराला
यह कविता निराला जी ने 1946 के स्वाधीनता संग्राम में विद्यार्थियों के देश-प्रेम पर लिखी थी।
'उषा' साप्ताहिक, गया, मार्च, 1946 (होलिकांक)। नये पत्ते में संकलित। साभार- निराला रचनावली, राजकमल प्रकाशन, संपादक - नन्दकिशोर नवल
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