वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं ? वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं ?
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन न रवानी है ? जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं है पानी है !!
उस दिन लोगों ने सही-सही, खूं की कीमत पहचानी थी। जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मांगी उनसे कुरबानी थी॥
बोले, "स्वतंत्रता की खातिर , बलिदान तुम्हें करना होगा। तुम बहुत जी चुके हो जग में, लेकिन आगे मरना होगा॥
आज़ादी के चरणों में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी। वह सुनो, तुम्हारे शीशों के, फूलों से गूंथी जाएगी॥
आज़ादी का संग्राम, नहीं- पैसे पर खेला जाता है। यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सिर झेला जाता है॥
आज़ादी का इतिहास, कहीं, काली स्याही लिख पाती है ? इसके लिखने के लिए, खून की नदी बहाई जाती है !"
यूं कहते-कहते नेता की, आंखों में खून उतर आया। मुख रक्त-वर्ण हो गया, दमक उठी उनकी रक्तिम काया॥
आजानु-बाहु ऊंची करके, वह बोले, "रक्त मुझे देना। इसके बदले में भारत की, आजादी तुम मुझसे लेना !!''
हो गई सभा में उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे। स्वर इन्कलाब के नारों के, कोसों तक छाये जाते थे॥
"हम देंगे-देंगे खून'' शब्द बस, यही सुनाई देते थे। रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे॥
बोले सुभाष, "इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है। लो,यह कागज है कौन यहां, आकर हस्ताक्षर करता है॥
-गोपाल प्रसाद व्यास |