भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं राखी अपनी, यह लो आज । कई बार जिसको भेजा है सजा-सजाकर नूतन साज ।।
लो आओ, भुजदण्ड उठाओ इस राखी में बँध जाओ । भरत - भूमि की रजभूमि को एक बार फिर दिखलाओ ।।
वीर चरित्र राजपूतों का पढ़ती हूँ मैं राजस्थान । पढ़ते - पढ़ते आँखों में छा जाता राखी का आख्यान । ।
मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी जब-जब राखी भिजवायी । रक्षा करने दौड़ पड़ा वह राखी - बन्द - शत्रु - भाई । ।
किन्तु देखना है, यह मेरी राखी क्या दिखलाती है । क्या निस्तेज कलाई पर ही बँधकर यह रह जाती है ।।
देखो भैया, भेज रही हूँ तुमको-तुमको राखी आज । साखी राजस्थान बनाकर रख लेना राखी की लाल ।।
हाथ काँपता, हृदय धड़कता है मेरी भारी आवाज । अब भी चौक-चौक उठता है जलियाँ का वह गोलन्दाज ।।
यम की सूरत उन पतितों का पाप भूल जाऊँ कैसे? अंकित आज हृदय में है फिर मन को समझाऊँ कैसे ?
बहिने कई सिसकती हैं हा । सिसक न उनकी मिट पायी । लाज गँवायी, गाली पाई तिस पर गोली भी खायी ।।
डर है कही न मार्शल-ला का फिर से पड़ जावे घेरा । ऐसे समय द्रौपदी-जैसा कृष्ण ! सहारा है तेरा ।।
बोलो, सोच-समझकर बोलो, क्या राखी बँधवाओगे भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा- करने दौड़े आओगे
यदि हाँ तो यह लो मेरी इस राखी को स्वीकार करो । आकर भैया, बहिन 'सुभद्रा'-- के कष्टों का भार हरो ।।
-सुभद्रा कुमारी चौहान साभार - मुकुल तथा अन्य कविताएँ
[यह कविता अभी तक (1.8.2014) इंटरनेट पर प्रकाशित नहीं थी। यदि आप इसे यहाँ पढ़ने के पश्चात इसका प्रकाशन करना चाहें तो अवश्य करें किंतु 'भारत-दर्शन' का उल्लेख अवश्य करें ] |