मंगलाचरण
मानस भवन में आर्य्जन जिसकी उतारें आरतीं- भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती। हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते ! सीतापते। सीतापते !! गीतामते! गीतामते !! ।।१।।
उपक्रमणिका
हाँ, लेखनी ! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा, दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा। स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो, जग जायें तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो। ।।२।।
संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा, हैं निशि दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा। जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही; जो आज उत्सव मग्र है, कल शोक से रोता वही ।।३।।
चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी, वह सद्गुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी । इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था? क्या इस पतन ही को हमारा वह अतुल उत्थान था? ।।४।।
उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी, जो हो रहा उन्नत अभी, अवनत रहा होगा कभी । हँसते प्रथम जो पद्म हैं, तम-पंक में फँसते वही, मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अन्त में हँसते वही ।। ५।।
उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड है, चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है । अतएव अवनति ही हमारी कह रही उन्नति-कला, उत्थान ही जिसका नहीं उसका पतन ही क्या भला? ।।६।
होता समुन्नति के अनन्तर सोच अवनति का नहीं, हाँ, सोच तो है जो किसी की फिर न हो उन्नति कहीं । चिन्ता नहीं जो व्योम-विस्तृत चन्द्रिका का ह्रास हो, चिन्ता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो ।।७।।
है ठीक ऐसी ही दशा हत-भाग्य भारतवर्ष की, कब से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की । पर सोच है केवल यही वह नित्य गिरता ही गया, जब से फिरा है दैव इससे, नित्य फिरता ही गया ।।८।।
यह नियम है, उद्यान में पककर गिरे पत्ते जहाँ, प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ । पर हाय! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है, पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है? ।।९।।
अनुकूल शोभा-मूल सुरभित फूल वे कुम्हला गए, फलते कहाँ हैं अब यहाँ वे फल रसाल नये-नये? बस, इस विशालोद्यान में अब झाड़ या झंखाड़ हैं, तनु सूखकर काँटा हुआ, बस शेष हैं तो हाड़ हैं ।।१०।।
दृढ़-दुःख दावानल इसे सब ओर घेर जला रहा, तिस पर अदृष्टाकाश उलटा विपद-वज्र चला रहा । यद्यपि बुझा सकता हमारा नेत्र-जल इस आग को, पर धिक्! हमारे स्वार्थमय सूखे हुए अनुराग को ।।११।।
सहदय जनों के चित्त निर्मल कुड़क जाकर काँच-से- होते दया के वश द्रवित हैं तप्त हो इस आँच से । चिन्ता कभी भावी दशा की, वर्त्तमान व्यथा कभी- करती तथा चंचल उन्हें है भूतकाल-कथा कभी ।।१२।।
जो इस विषय पर आज कुछ कहने चले हैं हम यहाँ, क्या कुछ सजग होंगे सखे! उसको सुनेंगे जो जहाँ? कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता, पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता? ।।१३।।
हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी । यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं, हम कौन थे, इस ज्ञान का, फिर भी अधूरा है नहीं ।।१४।।
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भारत-भारती से साभार
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