कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो । अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो । कभी कभी खुद से बात करो । कभी कभी खुद से बोलो ।
हरदम तुम बैठे ना रहो - शौहरत की इमारत में । कभी कभी खुद को पेश करो आत्मा की अदालत में । केवल अपनी कीर्ति न देखो- कमियों को भी टटोलो । कभी कभी खुद से बात करो । कभी कभी खुद से बोलो ।
दुनिया कहती कीर्ति कमा के, तुम हो बड़े सुखी । मगर तुम्हारे आडम्बर से, हम हैं बड़े दु:खी । कभी तो अपने श्रव्य-भवन की बंद खिड़कियाँ खोलो । कभी कभी खुद से बात करो । कभी कभी खुद से बोलो ।
ओ नभ में उड़ने वालो, जरा धरती पर आओ । अपनी पुरानी सरल-सादगी फिर से अपनाओ । तुम संतो की तपोभूमि पर मत अभिमान में डालो । अपनी नजर में तुम क्या हो? ये मन की तराजू में तोलो । कभी कभी खुद से बात करो । कभी कभी खुद से बोलो ।
- कवि प्रदीप |