"हमारी तो कभी शादी ही न हुई, न कभी बारात सजी, न कभी दूल्हन आई, न घर पर बधाई बजी, हम तो इस जीवन में क्वांरे ही रह गए।"
दूल्हन को साथ लिए लौटी बारात को दूल्हे के घर पर लगाकर, एक बार पूरे जोश, पूरे जोर-शोर से बाजों को बजाकर, आधी रात सोए हुए लोगों को जगाकर बैंड बिदा हो गया।
अलग-अलग हो चले बजनिए, मौन-थके बाजों को काँधे पर लादे हुए, सूनी अँधेरी, अलसाई हुई राहों से। ताज़ औ' सिराज़ चले साथ-साथ-- दोनों की ढली उमर, थोड़े-से पके बाल, थोड़ी-सी झुकी कमर- दोनों थे एकाकी, डेरा था एक ही।
दोनों ने रँगी-चुँगी, चमकदार वर्दी उतारकर खूँटी पर टाँग दी, मैली-सी तहमत लगा ली, बीड़ी सुलगा ली, और चित लेट गए ढीली पड़ी खाटों पर।
लंबी-सी साँस ली सिराज़ ने- "हमारी तो कभी शादी न हुई, न कभी बारात चढ़ी, न कभी दूल्हन आई, न घर पर बधाई बजी, हम तो इस जीवन में क्वांरे ही रह गए। दूसरों की खुशी में खुशियाँ मनाते रहे, दूसरों की बारात में बस बाजा बजाते रहे! हम तो इस जीवन में..."
ताज़ सुनता रहा, फिर ज़रा खाँसकर बैठ गया खाट पर, और कहने लगा- "दुनिया बड़ी ओछी है; औरों को खुश देख लोग कुढ़ा करते हैं, मातम मनाते हैं, मरते हैं। हमने तो औरों की खुशियों में खुशियाँ मनाई है।
काहे का पछतावा? कौन की बुराई है? कौन की बुराई है? लोग बड़े बेहाया हैं; अपनी बारात का बाजा खुद बजाते हैं, अपना गीत गाते हैं; शुक्र है कि औरों के बारात का ही बाजा हम बजा रहे, दूल्हे मियाँ बनने से सदा शरमाते रहे; मेहनत से कमाते रहे, मेहनत का खाते रहे; मालिक ने जो भी किया, जो भी दिया, उसका गुन गाते रहे।"
साभार - मेरी श्रेष्ठ कविताएं - बच्चन [राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली]
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