लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा ।
क्रेन पर ऊँचा चढ़ा कर, चैन उसकी क्यों तोड़ दी दर्शन बनाया लोभ का , मझधार नैया छोड़ दी ऋण-यन्त्र से मन्दी बढ़ी, डॉलर नदी में बह लिया अर्थ के मैले किनारे, नाच से सम्मोहित किया
बहकता उन्माद सिर पर, क्यों हमें बहका न देगा लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा ।
है सैज सिक्कों की बनी, सब बेवफ़ायें सो रही मण्डी बनाया विश्व को, निलाम 'गुडवील' हो रही गर्मजोशी बिकी, जादू सौदागरी का चल गया शेयरों से आग धधकी, ज्वाला में लहू जल गया
तड़पता सूरज दहक कर कहो क्यों झुलसा न देगा लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा ।
'उपभोग' की जय जय हुई, बाजार घर में आ घुसे व्यक्ति बना 'सामान' और , रिश्तों में चकले जा घुसे मोहक कला विज्ञापन की, हर कोई यहाँ फँस लिया अभिसार में मीठा ज़हर, विषकन्या-रूप डँस लिया
फैकी गुठली रस-निचुड़ी, कहो क्यों ठुकरा न देगा लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा ।
- हरिहर झा
|