एक मानव... नहीं। मुझे तो धीरे-धीरे मानवता के सभी मूल्य भूलते जा रहे हैं।
एक पुरूष... बिल्कुल नहीं। अपना पुरूषत्व दिखाने की होड़ में महिलाओं को अपनी हवस बनाने की मेरी आदत मुझ पर हावी होती जा रही है।
एक नेता... वो भी नहीं। मुझे तो अपनी पार्टी को संभालने से ही फुर्सत नहीं, अपने अस्तित्व के बारे में सोचने की जुर्रत भी कैसे कर लूँ।
एक महिला... वो तो कदाचित नहीं। अपनी अस्मिता को संभाले रखने की जंग में स्वयं को सुरक्षित बनाए रखने की चाह में बिना स्वयं को लुटाए कल का सबेरा देखने की राह में ही मैं इतना खो चुकी हूँ कि 'मैं कौन हूँ' यह सोचने की तो फुरसत ही नहीं मिली मुझे कि आखिर मैं हूँ कौन कौन हूँ मैं?
-डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड |