चित्त के चाव, चोचले मन के, वह बिगड़ना घड़ी घड़ी बन के। चैन था, नाम था न चिन्ता का, थे दिवस और ही लड़कपन के॥
(2) झूठ जाना, कभी न छल जाना, पाप का पुण्य का न फल जाना। प्रेम वह खेल से, खिलौनों से, चन्द्र तक के लिए मचल जाना॥
(3) चन्द्र था और, और ही तारे, सूर्य भी और थे प्रभा धारे। भूमि के ठाट कुछ निराले थे, धूलिकण थे बहुत हमें प्यारे॥
(4) सब सखा शुद्ध चित्तवाले थे, प्रौढ़ विश्वास प्रेम पाले थे। अब कहाँ रह गयीं बहारे वे, उन दिनों रंग ही निराले थे॥
(5) सूर्य के साथ ही निकल जाना, दिन चढ़े घूम-घाम घर आना। काम था काम से न धन्धे से, काम था सिर्फ खेलना खाना॥
(6) फिर मिला इस तरह नया जीवन, पुस्तकों में पड़ा लगाना मन। मिल चले जब कि मित्र सहपाठी, बन गया एक बाग़ बीहड़ बन॥
(7) भार यद्यपि कठिन उठाना था, किन्तु उद्योग ठीक ठाना था। हौसले से भरा हुआ मन था, और दिन, और ही ज़माना था॥
(8) अब दशा कहाँ रही मन की, फ़िक्र है धर्म, धाम, तन, धन की। एक घूँसा लगा गयी दिल पर, याद जब आ गयी लड़कपन की॥
-गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
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