पहली तनख्वाह के रुपये हाथ में थामे सुदीप अभावों के गहरे अंधकार में रोशनी की उम्मीद से भर गया था। एक ऐसी खुशी उसके जिस्म में दिखाई पड़ रही थी, जिसे पाने के लिए उसने असंख्य कँटीले झाड़-झंखाड़ों के बीच अपनी राह बनाई थी। हथेली में भींचे रुपयों की गर्मी उसकी रग-रग में उतर गई थी। पहली बार उसने इतने रुपये एक साथ देखे थे।
वह वर्तमान में जीना चाहता था। लेकिन भूतकाल उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। हर पल उसके भीतर वर्तमान और भूत की रस्साकसी चलती रहती थी। अभावों ने कदम-कदम पर उसे छला था। फिर भी उसने स्वयं को किसी तरह बचाकर रखा था। इसीलिए यह मामूली नौकरी भी उसके लिए बड़ी अहमियत रखती थी।
नई-नई नौकरी में छुट्टियाँ मिलना कठिन होता है। उसे भी आसानी से छुट्टी नहीं मिली थी। उसने रविवार की छुट्टियों में अतिरिक्त काम किया था, जिसके बदले उसे दो दिन का अवकाश मिल गया था। वह पहली तनख्वाह मिलने की खुशी अपने माँ-बाप के साथ बाँटना चाहता था।
स्कूल की पढ़ाई और नौकरी के बीच समय और हालात की गहरी खाई को वह पाट नहीं सकता था। फिर भी खाई के बीच जो कुछ भी था, उसे सान्त्वना देकर उसकी पीड़ा को तो वह कम कर ही सकता था। सुख-दुःख के चन्द लम्हे आपस में बाँटकर पीड़ा कम हो जाती है। उसने इस पल के इंतजार में एक लम्बा सफर तय किया था। ऐसा सफर, जिसमें दिनरात और मान-अपमान के बीच अंतर ही नहीं था।
शहर से गाँव तक पहुँचने में दो-ढाई घंटे से ज्यादा का समय लग जाता था, इसीलिए वह सुबह ही निकल पड़ा था। बस अड्डे पर आते ही उसे बस मिल गई थी। बस में काफी भीड़ थी। बड़ी मुश्किल से उसे बैठने की जगह मिल पाई थी।
कंडक्टर किसी यात्री पर बिगड़ रहा था, “इस सामान को उठाओ। छत पर रखो। आने-जाने का रास्ता बन्द ही कर दिया है। किसका है यह सामान?” कंडक्टर ने ऊँचे और कर्कश स्वर में पूछा।
एक दुबला-पतला-सा ग्रामीण धीमे स्वर में बोला, “जी, मेरा है।”
कंडक्टर ने ग्रामीण के वजूद को तौलते हुए आवाज सख्त करके लगभग दहाड़ते हुए कहा, “तेरा है तो इसे अपने पास रख। यहाँ रास्ते में अड़ा दिया है? उठ इसे।”
ग्रामीण ने गिड़गिड़ाकर अजीब-सी आवाज में कहा, “साहब… नजदीक ही उतरना है।”
सुदीप जब भी किसी को गिड़गिड़ाते देखता है तो उसे अपने पिताजी की छवि याद आने लगती है, ऐसे में उसका पोर-पोर चटखने लगता है। जैसे कोई धीरे-धीरे उसके जिस्म पर आरी चला रहा हो।। उसने कण्डक्टर की ओर देखा। कण्डक्टर का तोन्दियल शरीर कपड़े फाड़कर बाहर आने को छटपटा रहा था। बनैले सुअर की तरह उसके चेहरे पर पान से रंगे दाँत, उसकी भव्यता में इजाफा कर रहे थे। सुदीप को लगा जंगली सुअर बस की भीड़ में घुस आया है। उसने सहमकर सहयात्री की ओर देखा, जो निरपेक्ष भाव से अपने ख्यालों में गुम था। सुदीप ने ग्रामीण पर नजर डाली, जो अभी तक दयनीयता से उबर नहीं पाया था।
उसके भीतर पिताजी की छवि आकार लेने लगी। वह दिन स्मृति में दस्तक देने लगा, जब पिताजी उसे लेकर स्कूल में दाखिल कराने ले गए थे। उनकी बस्ती के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। पता नहीं पिताजी के मन में यह विचार कैसे आया कि उसे स्कूल में भर्ती कराया जाए, जबकि पूरी बस्ती में पढ़ाई-लिखाई की ओर किसी का ध्यान नहीं था।
पिताजी लम्बे-लम्बे डग भरकर चल रहे थे। उसे उनके साथ चलने में दौड़ना पड़ता था। उसने मैली-सी एक बदरंग कमीज और पट्टेदार निक्करनुमा कच्छा पहन रखा था। जिसे थोड़ी-थोड़ी देर बाद ऊपर खींचना पड़ता था।
स्कूल के बरामदे में पहुँचकर पिताजी पल भर के लिए ठिठके। फिर धीर-धीरे चलकर इस कमरे से उस कमरे में झाँकने लगे। हर एक कमरे में अँधेरा था, जिसमें बच्चे पढ़ रहे थे। मास्टर कुर्सियों पर उकड़ू बैठे बीड़ी पी रहे थे या ऊँघ रहे थे। पिताजी फूल सिंह मास्टर को ढूँढ रहे थे। दो-तीन कमरों में झाँकने के बाद एक छोटे-से कमरे की ओर मुड़े। उस कमरे में अन्य कमरों से ज्यादा अँधेरा था। फूल सिंह मास्टर अकेले बैठे बीड़ी पी रहे थे।
उन्हें दरवाजे पर देखकर फूल सिंह मास्टर खुद ही बाहर आ गए थे। पिताजी ने मास्टर जी को देखते ही दयनीय स्वर में गिड़गिड़ाकर कहा, “मास्टर जी इस जातक (बच्चे) कू अपणी सरण में ले लो। दो अच्छर पढ़ लेगा तो थारी दया ते यो बी आदमी बंण जागा। म्हारी जिनगी बी कुछ सुधार जागी।”
सुदीप पिता जी की उस मुद्रा को भूल नहीं पाया। वे हाथ जोड़कर झुके खड़े थे। फूल सिंह मास्टर ने बीड़ी का टोंटा अँगूठे के इशारे से दूर उछाला और पिताजी को लेकर हेडमास्टर के कमरे में चले गए।
सुदीप का दाखिला हो गया था। पिताजी खुश थे। उनकी खुशी में भी वही गिड़गिड़ाहट झलक रही थी। वे झुक-झुककर मास्टर फूल सिंह को सलाम कर रहे थे।
बस हिचकोले खा-खाकर रेंग रही थी। आसपास के यात्रियों ने बीड़ी-सिगरेट का धुंआ ऐसे उगलना शुरू कर दिया था, जैसे सभी अपनी-अपनी दुश्चिन्ताओं को धुएँ के बादलों में विलीन कर देंगे। उसने अपने पास की खिड़की का शीशा सरकाया। ताजा हवा की हल्की-हल्की सरसराहट भीतर घुस आई।
उसकी स्मृति में स्कूल के दिन एक के बाद एक लौटकर आने लगे। दूसरी कक्षा तक आतेजाते वह अच्छे विद्यार्थियों में गिना जाने लगा था। तमाम सामाजिक दबावों और भेदभावों के बावजूद वह पूरी लगन से स्कूल जाता रहा। सभी विषयों में वह ठीक-ठाक था। गणित में उसका मन कुछ ज्यादा ही लगता था।
मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने चौथी कक्षा के बच्चों से पन्द्रह तक पहाड़े याद करने के लिए कहा था। लेकिन सुदीप को चौबीस तक पहाड़े पहले से ही अच्छी तरह याद थे। मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने शाबासी देते हुए पच्चीस का पहाड़ा याद करने के लिए सुदीप से कहा।
स्कूल से घर लौटते ही सुदीप ने पच्चीस का पहाड़ा याद करना शुरू कर दिया। वह जोर-जोर से ऊँची आवाज में पहाड़ा कंठस्थ करने लगा। पच्चीस एकम पच्चीस, पच्चीस दूनी पचास, पच्चीस तियाँ पचहत्तर, पच्चीस चौका सौ …?
पिताजी बाहर से थके-हारे लौटे थे। उसे पच्चीस का पहाड़ा रटते देखकर उनके चेहरे पर सन्तुष्टि-भाव तैर गए थे। थकान भूलकर वे सुदीप के पास बैठ गए थे। वैसे तो उन्हें बीस से आगे गिनती भी नहीं आती थी, लेकिन पच्चीस का पहाड़ा उनकी जिन्दगी का अहम् पड़ाव था, जिसे वे अनेक बार अलग-अलग लोगों के बीच दोहरा चुके थे। जब भी उस घटना का जिक्र करते थे, उनके चेहरे पर एक अजीब-सा विश्वास चमक उठता था।
सुदीप ने पच्चीस का पहाड़ा दोहराया और जैसे ही पच्चीस चौका सौ कहा, उन्होंने टोका।
“नहीं बेट्टे… पच्चीस चौका सौ नहीं… पच्चीस चौका डेढ़ सौ…” उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से कहा।
सुदीप ने चौंककर पिताजी की ओर देखा। समझाने के लहजे में बोला, “नहीं पिताजी, पच्चीस चौका सौ… ये देखो गणित की किताब में लिखा है।”
“बेट्टे, मुझे किताब क्या दिखावे है। मैं तो हरफ (अक्षर) बी ना पिछाणूं। मेरे लेखे तो काला अच्छर भैंस बराबर है। फिर वी इतना तो जरूर जाणुं कि पच्चीस चौका डेढ़ सौ होवे हैं।” पिताजी ने सहजता से कहा।
“किताब में तो साफ-साफ लिखा है पच्चीस चौका सौ…” सुदीप ने मासूमियत से कहा।
“तेरी किताब में गलत बी तो हो सके नहीं तो क्या चौधरी झूठ बोल्लेंगे? तेरी किताब से कहीं ठड्डे (वड़े) आदमी हैं चौधरी जी। उनके धोरे (पास) तो ये मोट्टी-मोट्टी किताबें हैं… वह जो तेरा हेडमास्टर है वो बी पाँव छुए है चौधरी जी के। पड्डेर भला वो गलत बतायेंगे मास्टर से कणा सही-सही पढ़ाया करे…।” पिताजी ने उखड़ते हुए कहा।
“पिताजी… किताब में गलत थोड़े ही लिक्खा है।” सुदीप रुँआसा हो गया।
“तू अभी बच्चा है। तू क्या जाणे दुनियादारी। दस साल पहले की बात है। तेरे होणे से पहले तेरी म्हतारी बीमारी पड़गी थी। बचने की उम्मेद ना थी। सहर के बड़े डाक्दर से इलाज करवाया था। सारा खर्च चौधरी ने ही तो दिया था। पूरा सौ का पत्ता… ये लम्बा लीले (नीले) रंग का लोट (नोट) था। डाकदर की फीस, दवाइयाँ सब मिलाकर सौ रुपये बणे थे। जिब तेरी माँ ठीक-ठाक हो-क चालण-फिरण लागी तो, तो मैं चार मिन्ने (महीने) बाद चौधरी जी की हवेली में गया। दुआ सलाम के बाद मैन्ने चौधरी जी ते कहा ‘चौधरी जी मैं तो गरीब आदमी हूँ, थारी मेहरबान्नी से मेरी लुगाई की जान बच गई, वह जी गई, वर्ना मेरे जातक वीरान हो जाते। तमने सौ रुपये दिए ते। उनका हिसाब बता दो। मैं थोड़ा-थोड़ा करके सारा कर्ज चुका हूँगा। एक साथ देणे की मेरी हिम्मत ना है चौधरी जी।’ चौधरी जी ने कहा, ‘मैन्ने तेरे बूरे बखत में मदद करी तो ईब तू ईमानदारी ते सारा पैसा चुका देना। सौ रुपये पर हर महीने पच्चीस चौका डेढ़ सौ। तू अपणा आदमी है तेरे से ज्यादा क्या लेणा। डेढ़ सौ में से वीस रुपये कम कर दे। बीस रुपये तुझे छोड़ दिए। बचे एक सो तीस। चार महीने का व्याज एक सौ तीस अभी दे दें। बाकी रहा मूल जिव होगा दे देणा, महीने-के-महीने व्याज देते रहणा।”
“ईव बता बेट्टे पच्चीस चौका डेढ़ सौ होते हैं या नहीं। चौधरी भले और इज्जतदार आदमी हैं, जो उन्होंने बीस रुपये छैंल दिए। नहीं तो भला इस जमाने में कोइ छोड्डे है? अपणे शिवनारायण मास्टर के बाप बड़े मिसिर जी कू ही देख लो। एक धेल्ला बी ना छैड्डे। ऊपर ते विगार (वेगार) अलग ते करावे है। जैसे विगार उनका हक है। दिन भर में गोड्डे टूट जां। मजूरी के नाम पे खाल्ली हाथ। अपर ते गाली अलग। गाली तो ऐसे दे है जैसे बेद मन्तर पढ़ रहे हों।”
सुदीप ने पच्चीस का पहाड़ा दोहराया। पच्चीस एकम पच्चीस, पच्चीस दूनी पचास, पच्चीसल तिया पचहत्तर, पच्चीस चौका डेढ़ सो… अगले दिन कक्षा में मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने पच्चीस का पहाड़ा सुनाने के लिए सुदीप को खड़ा कर दिया। सुदीप खड़ा होकर उत्साहपूर्वक पहाड़ा सुनाने लगा।
“पच्चीस एकम पच्चीस, पच्चीस दूनी पचास, पच्चीस तिया पचहत्तर, पच्चीस चौका डेढ़ सौ।”
मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने उसे टोका, “पच्चीस चौका सौ।”
मास्टर जी के टोकने से सुदीप अचानक चुप हो गया और खामोशी से मास्टर का मुँह देखने लगा। मास्टर शिवनारायण मिश्रा कुर्सी पर पैर रखकर उकड़ू बैठे थे। बीड़ी का सुट्टा मारते हुए बोले, “अबे! चूहड़े के, आगे बोलता क्यूं नहीं? भूल गिया क्या?”
सुदीप ने फिर पहाड़ा शुरू किया। स्वाभाविक ढंग से पच्चीस चौका डेढ़ सौ कहा। मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने डाँटकर कहा, “अबे! कालिये, डेढ़ सौ नहीं सौ… सौ!”
सुदीप ने डरते-डरते कहा, “मास्साहब! पिताजी कहते हैं पच्चीस चौका डेढ़ सौ होवे हैं।”
मास्टर शिवनारायण हत्थे से उखड़ गया। खींचकर एक थप्पड़ उसके गाल पर रसीद किया। आँखे तरेरकर चीख़ा, “अबे, तेरा बाप इतना बड़ा बिदवान है तो यहाँ क्या अपनी माँ.. (एक क्रिया -जिसे सुसंस्कृत लोग साहित्य में त्याज्य मानते हैं) ..आया है। साले, तुम लोगों को चाहे कितना भी लिखाओ, पढ़ाओ रहोगे वहीं-के-वहीं… दिमाग में कूड़ा-करकट जो भरा है। पढ़ाई-लिखाई के संस्कार तो तुम लोगों में आ ही नहीं सकते। चल बोल ठीक से… पच्चीस चौका सौ। स्कूल में तेरी थोड़ी-सी तारीफ क्या होने लगी, पाँव जमीन पर नहीं पड़ते। ऊपर से जबान चलावे है। उलटकर जवाब देता है।”
सुदीप ने सुबकते हुए पच्चीस चौका सौ कहा और एक साँस में पूरा पहाड़ा सुना दिया। उस दिन की घटना ने उसके दिमाग में उलझन पैदा कर दी। यदि मास्साब सही कहते हैं तो पिताजी गलत क्यूँ बता रहे हैं। यदि पिताजी सही हैं तो मास्टर साब क्यूँ गलत बता रहे हैं। पिताजी कहते हैं चौधरी बड़े आदमी हैं, झूठ नहीं बोलते। उसके हृदय में बवण्डर उठने लगे।
नर्म और मासूम बालमन पर एक खरोंच पड़ गई थी, जो समय के साथ-साथ और गहरा गई थी। किसी ने ठीक ही कहा है, मन में गाँठ पड़ जाए तो खोले नहीं खुलती। सोते-जागते, उठते-बैठते, पच्चीस चौका डेढ़ सौ उसे परेशान करने लगा।
बालमन की यह खरोंच ग्रंथि बन गई थी। जब भी वह पच्चीस की संख्या पढ़ता या लिखता, उसे पच्चीस चौका डेढ़ सौ ही याद आता। साथ ही याद आता पिताजी का विश्वास भरा चेहरा और मास्टर शिवनारायण मिश्रा का गाली-गलौज करता लाल-लाल गुस्सैल चेहरा। सुदीप दोनों चेहरे एक साथ स्मृति में दबाए पच्चीस चौका डेढ़ सौ की अंधेरी दुर्गम गलियों में भटकने लगा। जैसे-जैसे बड़ा होने लगा, कई सवाल उसके मन को विचलित करने लगे, जिनके उत्तर उसके पास नहीं थे।
बस अड्डे से थोड़ा पहले एक बड़ा-सा गति अवरोधक था, जिसके कारण अचानक ब्रेक लगने से बस में बैठे यात्रियों को झटका लगा। कई लोग तो गिरते-गिरते बचे। झटका लगने से सुदीप की विचार तन्द्रा भी टूट गई, उसने जेब को छूकर देखा। तनख्वाह के रुपये जेब में सही सलामत थे। ↩ बस गाँव के किनारे रुकी। बस अड्डे के नाम पर दो एक दुकानें पान-बीड़ी की, एक पेड़ के तने से टिकी पुरानी-सी मेज पर बदरंग आईना रखकर बैठ गाँव का ही बदरू नाई, नाई से थोड़ा हटकर दूसरे पेड़ तले बैठा गाँव का मोची, एक केले-अमरूदवाला। बस यही था बस अड्डा।
सुदीप ने बस से नीचे उतरकर आसपास नजरें दौड़ाई, बस अड्डे पर कोई विशेष चहल-पहल नहीं थी। इक्का-दुक्का लोग इधर-उधर बैठे थे। वह सीधा घर की ओर चल पड़ा। गाँव के पश्चिमी छोर पर तीस-चालीस घरों की बस्ती में उनका घर था।
दोपहर हाने को आई थी। सूरज काफी ऊपर चढ़ गया था। उसने तेज-तेज कदम उठाए। लगभग महीने भर बाद गाँव लौटा था। जानी-पहचानी चिर परिचित गलियों में उसे अपने बचपन से अब तक बिताये पल गुदगुदाने लगे। इससे पहले उसने कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। एक अनजाने से आत्मीय सुख से वह भर गया था। अपना गाँव, अपने रास्ते, अपने लोग। उसने मन-ही-मन मुस्कुराकर कीचड़ भरी नाली को लाँघा और बस्ती की ओर मुड़ गया। गाँव और बस्ती के बीच एक बड़ा-सा जोहड़ था, जिसमें जलकुम्भी फैली हुई थी।
जलकुम्भी का नीला फूल उसे बहुत अच्छा लगता है। इक्का-दुक्का फूल दिखाई पड़ने लगे थे। उसने जोहड़ के किनारे-किनारे चलना शुरू कर दिया।
पिताजी आँगन में पड़ी एक पुरानी चारपाई की रस्सी कस रहे थे। सुदीप को आया देखकर वे उसकी ओर लपके।
“अचानक… क्या बात है… लगता है सहर में जी नहीं लगता।”
“नहीं ऐसी बात नहीं है… बस ऐसे ही चला आया।” सुदीप ने सहजता से कहा।
जेब से निकालकर तनख्वाह के रुपये उनके हाथ में रखकर, पाँव छुए। पिताजी गदगद हो गए। दोनों हाथों में रुपये थामकर माथे से लगाया, जैसे देवता का प्रसाद ग्रहण कर रहे हों। मन-ही-मन अस्फुट शब्दों में कुछ बुदबुदाये। फिर सुदीप की माँ को पुकारा, “दीपे की माँ, करके यहाँ तो आ..ले सिंभाल अपने लाड़ले की कमाई।”
माँ आवाज सुनकर बाहर आई, आँचल पसारकर रुपये लिये और सुदीप को छाती से लगा लिया। वह क्षण ऐसा लग रहा था, जैसे समूचा घर खुशी की बारिश से भीग रहा हो।
सुदीप चुपचाप सभी के खिले चेहरे देख रहा था। सब खुश थे। ऊपरी तौर पर तो वह भी मुस्कुरा रहा था, लेकिन उसके भीतर एक खलबली मची थी। वह अशांत।
उसने माँ से कहा, “यहाँ बैट्ठो माँ!” हाथ बढ़ाकर आँचल से कुछ रुपये ले लिये।
गम्भीर स्वर में बोला, “पिताजी, मुझे आपसे एक बात कहनी है।”
“क्या बात है बेट्टे? …कुछ चाहिए?” पिताजी ने जिज्ञासावश पूछा।
“नहीं पिताजी कुछ नहीं चाहिए। मैं आपको कुछ बताना चाहता हूँ।”
पिताजी गुमसुम होकर उसकी ओर देखने लगे। कुछ देर पहले की खुशी पर धुंध पड़ने लगी थी। तरह-तरह की आशंकाएँ उन्हें झकझोरने लगी थी। वे अचानक बेचैनी महसूस करने लगे थे। सुदीप ने पच्चीस-पच्चीस रुपये की चार ढेरियाँ लगाईं, पिताजी से कहा, “अब आप इन्हें गिनिये।”
पिताजी चुपचाप सुदीप की ओर देख रहे थे। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। असहाय होकर बोले, “बेटे, मुझे तो बीस ते आग्गे गिनना बी नी आत्ता। तू ही गिणके बता दे।”
सुदीप ने धीमे स्वर में कहा, “पिताजी, ये चार जगह पच्चीस-पच्चीस रुपये हैं, अब इन्हें मिलाकर गिनते हैं… चार जगह का मतलब है पच्चीस चौका।”
कुछ क्षण रुककर सुदीप ने पिताजी की ओर देखा। फिर बोला, “अब देखते हैं पच्चीस चौका सौ होते हैं या डेढ़ सौ..।”
पिताजी आवाक होकर सुदीप का चेहरा देखने लगे। उनकी आँखों के आगे चौधरी का चेहरा घूम गया। तीस-पैंतीस साल पुरानी घटना साकार हो उठी। यह घटना, जिसे वे अब तक न जाने कितनी बार दोहराकर लोगों को सुना चुके थे। आज उसी घटना को नए रूप में लेकर बैठ गया था सुदीप।
सुदीप रुपये गिन रहा था बोल-बोलकर, सौ पर जाकर रुक गया। बोला, “देखो, पच्चीस चौका सौ हुए, डेढ़ सौ नहीं।”
पिताजी ने उसके हाथ से रुपये ऐसे छीने, जैसे सुदीप उन्हें मूर्ख बना रहा है। वे रुपये गिनने का प्रयास करने लगे। लेकिन बीस पर जाकर अटक गए। सुदीप ने उनकी मदद की। सौ होने पर पिताजी की ओर देखा। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था। उन्होंने फिर एक से गिनना शुरू कर दिया। बीस पर अटक गए। उलट-पलटकर रुपयों को देख रहे थे, जैसे कुछ उनमें कम हैं। सुदीप ने फिर गिनकर दिखाए। पिताजी को यकीन ही नहीं आ रहा था। सुदीप ने हर बार उनकी शंका का समाधान किया, हर प्रकार से।
आखिर पिताजी को विश्वास हो गया। सुदीप ठीक कह रहा है पच्चीस चौका सौ ही होते हैं। झूठ-सच सामने था।
पिताजी के हृदय में जैसे अतीत जलने लगा था। उनका विश्वास, जिसे पिछले तीस-पैंतीस सालों से वे अपने सीने में लगाए चौधरी के गुणगान करते नहीं अघाते थे, आज अचानक काँच की तरह चटककर उनके रोम-रोम में समा गया था। उनकी आँखों में एक अजीब-सी वितृष्णा पनप रही थी, जिसे पराजय नहीं कहा जा सकता था, बल्कि विश्वास में छले जाने की गहन पीड़ा ही कहा जाएगा।
उन्होंने अपनी मैली चीकट धोती के कोने से आँख की कोर में जमा कीचड़ पोंछा और एक लम्बी साँस ली। रुपये सुदीप ने लौटा दिए। उनके चेहरे पर पीड़ा का खंडहर उग आया था, जिसकी दीवारों से ईंट, पत्थर और सीमेंट भुरभुराकर गिरने लगे थे। उनके अन्तस में एक टीस उठी, जैसे कह रहे हों, “कीड़े पड़ेंगे चौधरी… कोई पानी देने वाला भी नहीं बचेगा।”
-ओमप्रकाश वाल्मीकि
[साभार : दलित कहानी संचयन, साहित्य अकादेमी] |