चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में, बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव, पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक।
- माखनलाल चतुर्वेदी
सम्पादक की टिप्पणी:
'पुष्प की अभिलाषा' भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के बीच भी अत्यंत लोकप्रिय थी। शहीद रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने भी इस कविता को अपनी प्रिय कविताओं में से एक बताया है और यह उन्हें कंठस्थ थी।
'चन्द राष्ट्रीय अशआर और कवितायें' शीर्षक के अंतर्गत 'बिस्मिल'का यह कथन प्रकाशित है, "मेरी यह इच्छा हो रही है कि मैं उन कविताओं में से भी चन्द का यहाँ उल्लेख कर दूँ, जो कि मुझे प्रिय मालूम होती हैं और मैंने यथा समय कंठस्थ की थीं।"
कविताओं की इस सूची में दूसरे स्थान पर 'पुष्प की अभिलाषा' का जिक्र है।
'Pushp Ki Abhilasha' - A poem by Makhanlal Chaturvedi. |