भारत देश नाम भयहारी, जन-जन इसको गाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।
विचरण होगा हिमाच्छन्न शीतल प्रदेश में, पोत संतरण विस्तृत सागर की छाती पर। होगा नव-निर्माण सब कहीं देवालय का- पावनतम भारतभू की उदार माटी पर। यह भारत है देश हमारा कहकर मोद मनाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।1।।
हम सेतुबंध ऊँचा कर मार्ग बनाएँये, पुल द्वारा सिंहल द्वीप हिंद से जोड़ेंगे। जो वंग देश से होकर सागर में गिरते, उन जल-मार्गों का मुख पश्चिम को मोड़ेंगे। उस जल से ही मध्य देश में अधिक अन्न उपजाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।2।।
खोल लिया जाएगा, सोने की खानों को, खोद लिया जाएगा, स्वर्ण हमारा होगा। आठ दिशाओं में, दुनियाँ के हर कोने में सोने का अतुलित निर्यात हमारा होगा। स्वर्ण बेचकर अपने घर में नाना वस्तु मंगाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।3।।
डुबकी लगा करेगी नित दक्षिण सागर में लेंगी मुक्ताराशि निकाल हमारी बाँहें मचलेंगे दुनियाँ के व्यापारी, पश्चिम के- तट पर खड़े देखते सदा हमारे राहें कृपाकांक्षी बनकर वे हर वस्तु वाँछित लाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।4।।
सिंधु नदी की इठलाती उर्मिल धारा पर- उस प्रदेश की मधुर चाँदनीयुत रातों में। केरलवासिनि अनुपमेय सुदरियों के संग- हम विचरेंगे बल खाती चलती नावों में कर्णमधुर होते हैं तेलुगु गीत उन्हें हम गाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँये।।5।।
खूब उपजता गेहूँ गंगा के कछार में, तांबूल अच्छे हैं कावेरी के तट के, तांबूल दे विनिमय कर लेंगे गेहूँ का- सिंह समान मरहठों की ओजस् कविता के- पुरस्कार में उनको हम केरल-गजदंत लुटाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।6।।
ऐसे यंत्र बनेंगे, काँचीपुरम बैठकर- काशी के विद्वज्जन का संवाद सुनेंगे। लेंगे खोद स्वर्ण सब कन्नड प्रदेश का- जिसका स्वर्णपदक के हेतु प्रयोग करेंगे। राजपूतवीरों को हम ये स्वर्णपदक दे पाएँगे सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।7।।
यहाँ रेशमी वस्त्र बनाकर उन वस्त्रों की- एक बहुत ऊँची-सी ढेर लगा देंगे हम। इतना सूती वस्त्र यहाँ निर्माण करेंगे- वस्त्रों का ही एक पहाड़ बना देंगे हम। बेचेंगे काशी वणिकों को अधिक द्रव्य जो लाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।8।।
अस्त्र-शस्त्र का, कागज का उत्पादन होगा, सदा सत्य वचनों का हम व्यवहार करेंगे। औद्योगिक, शैक्षणिक शालाएँ निर्मित होंगी- कार्य में कभी रंच मात्र विश्राम न लेंगे। कुछ न असंभव हमें, असंभव को संभव कर पाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।9।।
छतरी बाड़े से, खीले से वायुयान तक- अपने घर में ही तैयार कराएँगे हम। कृषि के उपयोगी यंत्रों के साथ-साथ ही- इस धरती पर वाहन भव्य बनाएँगे हम। दुनियाँ को कंपित कर दें, ऐसे जलयान चलाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।10।।
मंत्र-तंत्र सीखेंगें, नभ को भी नापेंगे, अतल सिंधु के तल पर से होकर आएँगे। हम उड़ान भर चंद्रलोक में चंद्रवृत का- दर्शन करके मन को आनंदित पाएँगे। गली-गली के श्रमिकों को भी शस्त्रज्ञान सिखलाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।11।।
सरस काव्य की रचना होगी और साथ ही- कर देंगे चित्रित अति सुंदर चित्र चितेरे। हरे-भरे, होंगे वन-उपवन, छोटे धंधे- सुई से, बढ़ई तक के होंगे घर मेरे। जग के सब उद्योग यहाँ पर ही स्थापित हो जाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।12।।
मात्र जातियाँ दो, नरनारी अन्य न कोई, सद्वचनों से मार्गप्रदर्शक मात्र श्रेष्ठ है। अन्य सभी हैं तुच्छ कभी जो पथ न दिखलाते चिर सुकुमारी अपनी मधुर तमिल वरिष्ठ है। इसके अमृत के समान वचनों को हम अपनाएँगे। सब शत्रुभाव मिट जाएँगे।।13।।
-सुब्रह्मण्य भारती
(साभार : सुब्रह्मण्य भारती की राष्ट्रीय कविताएं एवं पांचाली शपथम्, रूपांतर: नागेश्वर सुंदरम्, विश्वनाथ सिंह विश्वासी) संपादक की टिप्पणी : इस रचना का मूल शीर्षक 'भारत देशम्' है। |