बेच रहे थे वह पानी हवा और ज़मीन, तब उसे लगता था है मुश्किल खरीदनी ही ज़मीन।
उसे कहाँ था मालूम कि कभी डर के कारोबार मौत के बाजार में, नियम यूँ बदलेंगे हवा बाज़ारों में बिकेगी रूपये - पैसे से भी, जिसकी किश्त न चुक पाएगी।
सांसे होंगी बाकी पर हवा नहीं, नहीं.. कहीं...नहीं.. और एक दिन अपने ही छूट जाएंगे अपनों से ही यूँ कहीं, अब कलम कांपती दुआ -दवा -हवा...??? क्या लिखूँ ? बस...या ख़ुदा...!!!
-डॉ॰ सुनीता शर्मा ऑकलैंड, न्यूज़ीलैंड ई-मेल: adorable_sunita@hotmail.com |