किया है तुमने मुझे अशेष, तुम्हारी लीला यह भगवान! रिक्त कर-कर यह भंगुर पात्र, सदा करते नवजीवन दान॥ लिए करमें यह नन्हीं वेणु, बजाते तुम गिरि-सरि-तट धूम। बहे जिससे नित नूतन तान, भरा ऐसा कुछ इसमें प्राण॥ तुम्हारा पाकर अमृत-स्पर्श, पुलकता उर हो सीमाहीन। फूट पड़ती वाणी से सतत, अनिर्वचनीय मनोरम तान॥ इसी नन्ही मुट्ठी में मुझे, दिए हैं तुमने निशिदिन दान। गए हैं देते युग-युग बीत, यहाँ रहता है फिर भी स्थान॥
- रबीन्द्रनाथ टैगोर भावानुवाद : सुधीन्द्र [विशाल भारत, 1942]
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