मैंने पहाड़ से माँगा : अपनी स्थिरता का थोड़ा-सा अंश मुझे दे दो पहाड़ का मन न डोला ।
मैंने झरने से कहा : दे दो थोड़ी-सी अपनी गति मुझे भी झरना अपने नाद में मस्त रहा कुछ न बोला।
मैंने दूब से माँगी थोड़ी-सी पवित्रता व ह अपने दलों में मुस्कराती रही। मैंने फूलों से माँगी ज़रा-सी कोमलता और चिड़िया से उसका चुटकी भर आकाश लहरों से थोड़ी-सी चंचल तरलता धूप से एक टुकड़ा उजास ।
ओक में भरने को खड़ा रहा देर तक कहीं से कुछ न पाया याचना अकारथ जाते देख आहत मन लौट आया तरस खाया हवा ने हौले से कान में बोली : नाहक हो उदास अपने लिए माँगने से बाहर निकलो निश्छल, सहज हो जाओ यह सब प्रचुर है तुम्हारे पास । माँगने से कुछ नहीं मिलेगा देने से पाओगे, जितना ही हरियाली बाँटोगे अंदर हरे हो जाओगे।
-कन्हैयालाल नंदन |