आशा वेलि सुहावनी. शीतल जाको छांहि । जिहि प्रिय सुमन सुफलन ते, मधराई अधिकाहिं
आशा दीपक करत नीत, जिहि हिरदे में बास ज्यों ज्यों छावे तिमिर घन, त्यों त्यों बड़े प्रकास
मानव-जीवन को सुखद, सरस जु देत बनाइ सो आशा संजीवनी, किहि हत-भाग न भाइ
होहु निरासन हार में, धन्य लच्छ निज मान तोमे ईश्वर अंश को, देत जु प्रकट प्रमान
मीत न होहु निराश अब, लखि समाज को हास मधुऋतु आगम सूचहीं, पतझड़ फागुन मास
-गुलाबराय |