हिंदुस्तान की भाषा हिंदी है और उसका दृश्यरूप या उसकी लिपि सर्वगुणकारी नागरी ही है। - गोपाललाल खत्री।
ग्राम चित्र (काव्य)    Print  
Author:नरेंद्र शर्मा
 

मक्का के पीले आटे-सी
धूप ढल रही साँझ की!
देवालय में शंख बज उठा,
घंट-नाद ध्वनि झांझ की!

गाय रंभाती आती, ग्वाला
सेंद चुरा कर खा रहा!
पथवारी पर बैठा जोगी
गीत ज्ञान के गा रहा!

कहीं अकेले , कहीं दुकेले
सारस पोखर में खड़े!
पोखर के उस पार, गाँव में
घर घर दीये हंस पड़े!

सर पर धरे घड़ा करी का
घर आ रहा किसान है!
बांयें एक उदुम्बर, दायें
देवी माँ का थान है!

दोनों और आषाढी धरती
बाट देखती बीज की!
आई याद बहु की, जो पीहर
गयी हुई है तीज की!

दिखे ज्वार के भूठ्ठे, दिखती
बाल बाजरे की भरी;
दिखी छरहरी अरहर, रहती
जो दो सौ दिन तक हरी!

बन के खेत, बाद है सन की,
फ़ैली - फूली तोरई
बेल या कि सूए में कोई
सुतली हरी पिरो गई!

छूटने को तैयार, हार में
खेती मक्का की खड़ी;
हरी - भरी सुंदरी इकहरी,
काया मोती की लड़ी!

लड़ी सचित्र मधुर सुधियों की,
प्यास आस - औलाद की;
जी भर आया, हुई अचानक,
मोम देह फौलाद की!

भागा आया छोटा भाई,
बन्नू जिसका नाम है;
भौजी आई हैं - यों कह कर,
भागा उलटे पाँव है!

गमकी धरती, चमका अम्बर,
सधा - बंधा चलता कृषक,
घर आते किसान के मन में,
बैलों के तन में थिरक!

फूला नहीं समाता, पर वह
लेता सध कर सांस है;
बनता जैसे वह न क्वार में
फूला केवल कांस है!

जैसे कुछ न हुआ हो, ऐसे
आया वह चौपाल पर;
गया कुऐं पर, सर पर से वह,
बोझ चरी का डाल कर!

आधा कुआँ घेर में, आधा
बाहर सारे, गाँव का
आधा अपना, आधा जग का
कृषक जीव दो पाँव का!

देख बहू को अनदेखा-सा
करता धनिया का धनी;
मन में जो सोने की मूरत,
दिखलावे को काकणी!

फेर रही दो हाथ प्यार से
कृषक - वधूटी जोट पर;
कभी देख लेती किसान को
घूँघट पट की ओट कर!

भुस में हरी चरी की कुट्टी,
पूरी भरी लड़ावनी;
बड़ी बड़ी आँखें बैलों की
भोली भली लुभावनी!

बँधी थान पर दुही धेनु के
थन भर आते प्यार से;
पीता वत्स पिलाती माता-
चाट उसे अपनाव से!

हाथ-पाँव धो कर, चौके में
आया स्वस्थ किसान भी;
तीन तीन तीमन तरकारी,
थाली में पकवान भी!

भरी - पूरी थाली किसान की,
धरती जैसे क्वार की!
हुई नई हर साल कहानी
सूर्य - धरा के प्यार की!

माँ - बेटा बैठे बतराते,
माँ की सोयी सुधि जगी -
न्योराती की रात सातवीं
लछमन को सकती लगी!

हनुमान लाये उपाड कर,
भारी बहुत पहाड़ था;
छोटी - सी बूटी संजीवनी,
नौ अंगुल का झाड़ था!

बेटा बोला ' क्या भारी था
हनुमान बलवान को!
पर, माँ, वह भी याद करेंगें
बली भरत के बाण को!

भरत भक्त धरती का बेटा,
भक्त भरत के बान - सा!
अपने आपे को धरती पर,
किले कौन किसान-सा?

बीच गाँव में पंचायत-घर
गूँजा जयजयकार से;
राम - बान सा वह भी निकला
अपने घर के द्वार से!

क्या देखा, रह गई न धरती
अन्धकार के पाश में!
जौ के आटे की लोई-सा
चाँद चढ़ा आकाश में!

झाँझी लेकर कन्या आई,
लांगूरा टेसू लिए;
नौ नगरी सौ गाँव बसेंगे,
सदा भवानी पूजिये!

जागे लछमन जती, गाँव का
पंचायत - घर खिल गया;
राजा रामचन्द्र की जय में,
एक और स्वर मिल गया!

कथा विसर्जित हुई, नीम पर
हिन्नीपैना आ गया;
बूढ़े बड़ की घनी जटा में
ढलता चन्दा समा गया!

पति की पैछर सुन कर धनियाँ
चुपके साँकल खोलती;
खड़ी कटोरा लिये दूध का,
आखर एक न बोलती!

सास - ननद - देवर के डर से
चूड़ी खनकाती नहीं;
पति के पास खड़ी है गुमसुम,
बहुत पास आती नहीं!

अन्धकार सागर जीवाशय,
दो लहरें टकरा रहीं;
किस विदेह से आंदोलित हो,
देह निकटतर आ रहीं!

स्ववश कौन ! ऊर्जा - तरंग में ,
विवश देह मन की लगन !
है पीड़ा में पुलक, दाह में
दीप्ति, शान्ति देती अगन!

रीति सनातन, नया नहीं कुछ,
धरती पर, आकाश में;
तत्त्व पुरातन बनता नूतन
अनुभव में, अभ्यास में!

ऊर्जा - पुंज सूर्य आ निकला
क्रोड तिमिर का फोड़ कर,
लिए हुए हल - बैल कृषक भी
खड़ा हुआ नौतोड़ पर !

वह न अहंकारी, सूरज को
सादर शीश नवा रहा !
हलवाहे को सोच नही यह -
उसको काल चबा रहा !

कुछ मुंह में कुछ गोद , खलक सब
बना चबेना काल का !
नहीं बीज का, है शायद यह
हाल पात का डाल का !

वैकल्पिक कुछ नहीं जगत में
सब दैवी संकल्प है !
हँसी - खेल में काम कराता,
प्रभु न कौतुकी स्वल्प है !

कब जोता ? कब बोया ? कैसे -
नई फसल उठ आ रही -
ऊर्जा - अणु बन प्राण - पिंड को
माया खेल खिला रही !

माया झूठी नहीं , नहीं तो
सत्य छोड़ देता उसे !
अगर ऐंठ कर चलती ठगनी
सत्य तोड़ देता उसे !

निर्विकल्प भव लीन कृषक का
जीवन सहज समाधि है ;
क्षेत्र बीज से कतराने में
आठों पहर उपाधि है !

देहभूमि या नेहभूमि या
भूमि अगम आकाश की,
क्षेत्र - बीज - सम्बन्ध निबाहे ,
बिना, मुक्ति कब दास की ?

तन से दास , भक्त हैं मन से
आत्मा से अविभक्त हैं;
क्षेत्र - बीज की तरह परस्पर
नारी - नर आसक्त हैं !

ग्राम चित्र अंकित है जिस पर,
वह ऊपर का पर्त् है ,
अंतर्हित गंगा - यमुना से
सिंचित ब्रह्मावर्त है !

एक छमाही बीत गई है
लगी दूसरी चैत में ,
गति में द्वैत, किन्तु गति - परिणति
है केवल अद्वैत में !

जो अद्वैत, द्वैत उसको प्रिय;
बनता एक अनेक है ;
एक गीत, कड़ियाँ अनेक हैं -
एक सभी के टेक है !

चैत मास की नौरती है,
साधों का त्यौहार है;
हंसी - खुशी त्यौहार मनाना
गाँवों का व्योहार है !

चढ़ती धुप घुले बेसन- सी
लिपी खेत खलिहान पर;
हैं किसान के नयन निछावर
धरती के वरदान पर !

कहीं चल रही दाँय पैर में,
कहीं अन्न का ढेर है;
देर भले ही हो प्रभु के घर,
किन्तु नहीं अंधेर है !

लढ़िया भर भर रास आ रही
हर किसान के द्वार पर;
स्वर्ण निछावर है गाँवों के
मटमैले संसार पर !

छाती बढ़ी बहू की, घर के
हर कोने में नाज है;
सास महाजन, जिसके मन में
बड़ा मूल से ब्याज है !

सतमासा है छोटा बेटा,
इसे याद कर डर गई;
गुड - गेहूँ - घी चौअन्नी ले,
वह पंडित के घर गई !

आज रामनौमी है, पंडित बोला -
सुखिया जान ले !
वह नौ दिन नौ मास कोख में
राज करेगा मान ले !

सावन - धोय मैल कटेंगे
पंडित बोला प्रेम से -
राम नाम का जप कर सुखिया,
साँझ - सवेरे नेम से !

बीती ताहि बिहार, राम जी
तेरी मनचीती करें !
तेरे पोते के प्रताप से ,
सुखिया दोनों कुल तरे !

देवर और ननद भाभी का
हाथ बटाते काम में !
अब की साल बहुत कम इमली,
खूब फल लगे आम में !

गेहूं बेच पटाया पोता,
गिरिधर का सीना तना -
घर में भर गोजइ , चनारी
मटरारी , बेझर , चना !

हाथ पसारा नहीं , कर्ज में,
पाँव नहीं जकड़े गये;
न्योली में नगदी, गठरी में
चीज - बस्त, कपड़े नए !

संवतत्सर शुभ है, घर - घर में
अन्न भरा कोठार में;
पांत बाँध कर खाया सब ने
गाँव गाँव ज्योनार में !

अब के बरस बहुत साहे हैं
मासोत्तम बैसाख में;
गाँव - गाँव में ब्याह हुए हैं
दस बारह हर पाख में !

बैठा ज्यों ही जेठ, चुट गई,
अरहर, सन नुकने लगा;
सूने पड़े खेत, कृषकों का
काम - काज चुकने लगा !

चार पहर तक चढ़ी कढ़ी- सी
पीली आंधी आ गई;
जंगल गैल गाँव पर पीले
पर्त धुल की छा गई !
जेठ दसहरा, नहर नहाने
निकले घर के सब जने;
बाँट बंदरों को गुड़धानी
खाते सब लाई - चने !
बहू मांगने लगी सिंघाड़ा,
कहाँ सिंघाड़ा जेठ में ?
सास हंस पड़ी - तेरा ससुरा
आया तेरे पेट में !

धनिया बनी लाज की गठरी
ककड़ी नरम चबा रही;
हरे जवासे की हरियाली
उसके मन को भा रही !

जेठ मास में चढ़े तवे - सी
भूमि, तप रही रोहिणी;
बहुत दूर है मैदानों से
श्याम घटा मनमोहिनी !

पंथी के पांवों में छाले,
पंख पखेरू के जले !
ग्वाल और गोधन जा बैठे -
सीरक में बरगद तले !

दोपहरी में छिपते सब, ज्यों
भेद भरम के भेदिया;
बियाबान में लू के झोंके,
जैसे भूखे भेड़िया !

कहीं बवंडर उठते, जैसे
हाबूङों की टोलियाँ;
बबरीबन में पवन बोलता
बनमानस की बोलियाँ !

साँझ हुए निकले सब प्राणी
फिर जीने की आस में;
धनिया के पांवों में बिछुआ,
बिछुआ है आकाश में !

पवन चला पुरवैया नय्या
बनती नभ में घन - घटा;
काशीफल - सा पेट बहू का,
पीला पड कर तन लटा !

शोभित है आषाढ़ मुँड़ासा
बाँध ज़री का जामनी;
बैठा है कुछ दूर, पारा पर कितना
धनिया का धनी !

कौंधा का चौंधा, गड़ - गड घन,
बरसा पानी टूट के;
बह निकले परनाले नाले
जैसे पैसे लूट के !

जल जंगल हो गये , एक ,
बगिया में टपका आम था;
पैडा खाकर पंडित बोला,
बछड़ा घर के काम का !

आया नया किसान बंद जिसकी,
मुठ्ठी में बीज है !
छोरी आन गाँव की बछिया -
दान - मान की चीज है !

दादी ने पोते को देखा,
दादा की उनहार थी !
सुधि का बादल उमड़ा मन में,
आँखों में जलधार थी !

कर तिहायला हलुआ, पहला
ग्रास खिलाया गाय को;
फिर चुपचाप खिलाया अपनी
बहू - लाल की धाय को !
पुरुष बीज , नारी धरती है;
जनम जनम की प्रीती है !
नई फसल पर सृष्टि रीझती
यही पुरानी रीत है !
दिया सास ने सोंठ और गुड,
लिया बहू ने चख लिया;
पंडित ने नन्हे किसान का
नाम रामधन रख दिया !

यही कहेंगें लोग, चित्र यह
केवल विगताभास है;
किन्तु हुआ जो, होगा भी फिर,
यह मेरा विशवास है !

- पं॰ नरेंद्र शर्मा

[ आभार - यह कविता स्व पंडित नरेंद्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह द्वारा प्रेषित की गई है। ]

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