देखतीं है आँखें बहुत कुछ ज़मीं, आसमान, सड़कें, पुल, मकान पेड़, पौधे, इंसान हाथ, पैर, मुहं, आँख, कान आँसू, मुस्कान मगर खुली आँखों भी अनदेखा रह जाता है बहुत कुछ पैरों तले की घंसती ज़मीन सर पर टूटता आसमान ढहता हुआ सेतु बढती दरम्यानी दूरियां घर का घर ही ना रहना ये कुछ भी नहीं देख पाती आँखें तुमने जो भर-भर नयन मुझे देखा है दरअसल मुझे देखा ही नहीं।
-प्रीता व्यास न्यूज़ीलैंड
|