जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
महारानी का जीवन (कथा-कहानी)    Print  
Author:डॉ माधवी श्रीवास्तवा | न्यूज़ीलैंड
 

राम आज अत्यधिक दुःखी थे। उनका मन आज किसी कार्य में स्थिर नहीं हो रहा था। बार-बार सीता की छवि उन्हें विचलित कर रही थी। वह पुनः पञ्चवटी जाना चाहते थे, कदाचित यह सोच कर कि सीता वहाँ मिल जाये यदि सीता न भी मिली तो सीता की स्मृतियाँ तो वहाँ अवश्य ही होंगी। राज-काम से निवृत्त होकर राम अपने कक्ष में वापस आ जाते हैं। प्रासाद में रहते हुए भी उन्होंने राजमहल के सुखों से अपने आप को वंचित कर रखा था, यह सोचकर कि मेरी सीता भी तो अब अभाव पूर्ण जीवन जी रही होगी। पता नहीं वह क्या खाती होगी...? कहाँ सोती होगी...? इसी चिंता में आज उन्हें भूख भी नहीं लग रही थी। राजसी भोजन का तो परित्याग उन्होंने पहले ही कर दिया था। आज उन्होंने कन्द-मूल भी ग्रहण नहीं किये थे। जिससे माता कौशल्या अत्यंत चिंतित हो गयी थी। वह राम से मिलने उनके कक्ष की ओर जाती हैं, परन्तु मार्ग में ही सिपाही उन्हें रोक देते हैं।

"क्षमा करें माता, महाराज ने किसी से भी मिलने को मना किया है।"

"परंतु मैं उसकी माँ हूँ

सिपाही यह सुनते ही मार्ग दे देता है।

"राम...राम...कपाट खोलो राम...आज तू भोजन कक्ष में नहीं आया। क्या बात है राम? मुझसे बात नहीं करेगा...?"

माँ की ध्वनि सुनकर राम अपने कक्ष के कपाट खोल देते हैं।

राम को देखते ही माता कौशल्या सब समझ जाती है।

"पुत्र तू जब सीता से इतना ही प्रेम करता है, तो उसे क्यों अपने से दूर कर दिया?"

राम कुछ नहीं बोलते। बस माता के गोद में अपना सर रखकर अपने विचलित मन को शांत करने का प्रयास करते हैं।

"पुत्र राम! तू कुछ बोलता क्यों नहीं..? इस प्रकार तू कब तक अपना कष्ट अपने भीतर छिपाए रखे गा...? मैं तुम्हारी माँ हूँ, मैं तुम्हें इस तरह नहीं देख सकती। तू अभी जा और सीता को खोज कर उसे महल वापस ले आ।"

"नहीं माँ, सीता अब कभी वापस नहीं आएगी...मैं उसको जानता हूँ। यदि मैं सीता को ढूंढ भी लूँगा, तो भी मैं अब उसे वापस नहीं ला सकता। अभागी अयोध्या ने उसे सदा के लिए खो दिया है।"

"नहीं मैं नहीं मानती, तू एक बार मुझे सीता से मिला तो...मैं उससे क्षमा मांग लूँगी। वह मेरा वचन कभी अनसुना नहीं कर सकती...।"

राम को माँ की गोद में नींद आ जाती है। राम को सोता देख माता कौशल्या शांत हो जाती हैं और अपने पुत्र के मस्तक को सहलाते हुए, भीगे नेत्रों के साथ वह पशुपति से प्रार्थना करती हैं।

"हे महादेव! मेरे पुत्र का कष्ट कब समाप्त होगा, मुझसे और इसका कष्ट देखा नहीं जाता।"

माँ के आँखों में अश्रु देख कर महादेव भी अपने आप को रोक नहीं पाते वह भी अश्रु पूरित होकर मानो कह रहे हो - "माता मैं स्वयं विवश हूँ। यह सब तो श्री हरि की ही लीला है।"

लंका से वापस आने के पश्चात कुल-गुरु वशिष्ठ के आदेश से राम और सीता का अयोध्या के सिंहासन पर पूरे विधि-विधान के साथ राज्याभिषेक हुआ था। राजपरिवार और प्रजा अपने चहेते राजा और रानी को पाकर प्रसन्न थी। प्रजा अपने गौरवपूर्ण और श्रेष्ठ शासन व्यवस्था से आनंदित थी। चारों ओर शांति और न्याय की स्थापना थी। परंतु यह मृत्युलोक है, यहाँ स्थिति हर समय एक जैसी नहीं होती। सुख के पश्चात दुःख और दुःख के पश्चात सुख यही जीवन का क्रम है और इसी क्रम को जीवन की गतिशीलता कहते हैं।

महाराज राम प्रायः भेष बदल कर अपने राज्य में भ्रमण के लिए जाया करते थे। यह जानने के लिए कि प्रजा को कोई कष्ट तो नहीं है...वह अपने राजा के विषय में क्या विचार रखती है...वह अपने राजा के निर्णयों से प्रसन्न रहती है अथवा नहीं। यही सब जानने के लिए एक रात महाराज राम भेष बदल कर अपनी अयोध्या में विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने एक समूह को कुछ वार्तालाप करते हुए सुना। वह कह रहे थे-

"महाराज राम तो अपनी पत्नी-प्रेम में अंधे हो चुके हैं।"

"हाँ भैया, ठीक कहत हो। अब भला ऐसी स्त्री को कौन अपने घर में स्थान देता है, जो इतने दिनों तक किसी दूसरे राजा के घर रही हो।"

"घर में स्थान तो छोड़ो भैया, उसको तो अयोध्या की महारानी तक बना दियो। यदि हमारी स्त्री होती, तो हम तो कबहुँ उसे अपने घर में घुसने न देते।"

महाराज राम ने जब यह सब सुना तो उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके प्राण ही हर लिए हो। वह बड़े दुःखी मन से अपने प्रासाद में वापस आ जाते हैं। दूसरे ही दिन वह अपने एक सेवक को भेज कर यह पता लगवाते हैं कि शेष प्रजा अपनी महारानी के विषय में क्या सोचती है। परिणाम नकारात्मक ही थे। लगभग आधी से अधिक जनता सीता के विषय में दोषपूर्ण विचार ही रखती थी। महाराज राम यह सब सुनकर अत्यंत चिंतित हो जाते हैं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आता कि वह अब क्या करें। पहले वह सोचते मैं यह राजपद ही त्याग देता हूँ और सीता को लेकर पुनः वन चला जाता हूँ, कदाचित वन का जीवन यहाँ से अधिक श्रेयस्कर होगा...पुनः सोचते, मैं अपने व्यक्तिगत सुख के लिए अपनी प्रजा को अकेले कैसे छोड़ कर जा सकता हूँ...उन्हें कुछ समझ में नहीं आता। उनका मन इस अंतहीन पीड़ा से विदीर्ण हो चुका था। महाराज को सदैव चिंतित देखकर सीता को आभास हो जाता है कि अवश्य ही राम किसी विषय को लेकर चिंताग्रस्त हैं। वह राम से पूछती परंतु वह राज्य का भार कह कर टाल देते थे। राम के पास इतना साहस ही नहीं था कि वह अपनी प्राणप्रिया, निष्कलंक सीता से इस तरह अशोभनीय विषय पर वार्तालाप करें। परंतु सीता को राम का दुःख अब देखा नहीं जा रहा था। वह अपने एक विश्वास प्रिय दासी को अयोध्या का हाल-चाल भेजने के लिए भेजती है।

"प्रियंवदा तुम मेरी विश्वासपात्र परिचारिका हो इसलिए मैं तुम्हें यह कार्य सौंपती हूँ। तुम प्रजा में जाकर पता करो कि ऐसी कौन सी बात है जिसके कारण महाराज राम इतने चिंतित हैं।"

परिचारिका दो-तीन दिन बाद वापस आकर महारानी सीता को अयोध्या में चल रहे अपवाद के विषय में बताती है। सीता को अब समझते देर नहीं लगती कि महाराज के दुःख का क्या कारण है। वह आज भोजन के पश्चात राम से मिलती हैं।

"महाराज...!"

"महाराज...? क्यों सीते इस कक्ष में इस सम्बोधन की क्या आवश्यकता है?"

"आवश्यकता है स्वामी क्योंकि आज मैं जो पूछने जा रही हूँ, उसका संबंध अयोध्या की राजनीति से है।"

"क्या है सीते, कहो न।"

"क्या कोई पदाधिकारी आरोप लगने के पश्चात भी अपने उस पद पर बना रह सकता है।"

"नहीं, उसे तत्काल ही अपना पद छोड़ देना चाहिए। जब तक उसपर लगे आरोपों पर कोई निर्णय नहीं आ जाता।"

"तब महाराज मैं अपना महारानी पद का अभी से त्याग करती हूँ।"

"सीते!!!यह तुम क्या कह रही हो? मैं कुछ समझा नहीं।"

"महाराज आप अच्छी तरह जानते हैं मैं की विषय में बात कर रहीं हूँ। मुझे आपके दुःख का कारण ज्ञात हो गया है।"

राम स्तब्ध होकर सीता को देखते रह जाते हैं। उन्हें पल भर के लिये ऐसा लगता है, जैसे विधाता ने उन्हें कुछ देकर सब कुछ छीन लिया हो।

"सीते अभी तुम गर्भवती हो, इस अवस्था में तुम्हें प्रसन्न रहना चाहिए। तुम प्रजा की चिंता मत करो मैं उनको संभाल लूँगा।"

"नहीं स्वामी, आप मेरे लिए अपने कुल की मर्यादा और राज-धर्म को विस्मृत नहीं कर सकते। एक राजा को यह शोभा नहीं देता कि वह प्रजा के विचारों का सम्मान न करें। यदि प्रजा मुझे महारानी पद के योग्य नहीं समझती है। तो मैं इस पद का अभी परित्याग करती हूँ और जो आरोप मुझ पर लगा है, उसके अनुसार मैं अब इस महल में भी रहने योग्य नहीं हूँ, इसलिए मैंने यह निर्णय लिया है कि मैं महल त्याग कर वन में चालू जाऊँगी।"

"नहींs s s सीते तुम ऐसा नहीं कर सकती।"

"नहीं स्वामी, अब समय की यही अनिवार्यता है। आप भावनावों में बह कर अपने राज-धर्म से विचलित न हों। यह समय भावनाओं का नहीं है अपितु एक राजा की भांति कठोर निर्णय लेने का है...नहीं तो आने वाली पीढ़ी क्या सोचेगी कि इक्ष्वाकु वंश में एक ऐसा राजा भी हुआ था जो अपने व्यक्तिगत प्रेम के कारण अपने राज-धर्म से विमुख हो गया था। आप को अपने वंश को कलंकित करने का कोई अधिकार नहीं है।"

"सीते तुम क्या कह रही हो।"

राम अब बिल्कुल टूट चुके थे, वह अब समझ चुके थे कि उनकी प्राणप्रिया सीता अब उनसे सदा के लिए विलग होने वाली है। नियति इतनी निष्ठुर क्यों होती है...यह राज-धर्म इतना कठोर क्यों है...? महाराज राम एक साधारण पुरुष की भाँति विलाप करने लगते हैं।

"सीते, यह मनुष्य जीवन इतना कष्टकारी क्यों है...सीते मुझे क्षमा कर देना, मैं तुम्हें एक पति के रूप में कोई सुख और सुरक्षा न दे सका।"

"ऐसा न कहें स्वामी मेरा हृदय जानता है कि आप मुझसे कितना प्रेम करते हैं। मैं अपना शेष जीवन आपका नाम जप कर काट लूँगी।"

"सीते... मेरी प्रिया...।"

रात्रि के समय जब सारा संसार सो चुका था, तब राम लक्ष्मण को बुलावा भेजते हैं।

"क्या बात है भैया...? अचानक ऐसी क्या विपदा आ गयी...? राज्य में सब ठीक है न...?"

"हाँ लक्ष्मण अयोध्या सुरक्षित है, वह असुरक्षित हो भी कैसे सकती है...? जब उनके पास सीता जैसी महारानी और तुम्हारे जैसा प्रहरी हो।"

"मैं कुछ समझा नहीं भैया?"

"लक्ष्मण सीता कुछ दिन वन में रहना चाहती हैं। तुम उनको वन में छोड़ आओ।"

"क्यों भैया...?"

"वह मैं नहीं जानता।"

"लेकिन भैया, भाभी अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि वह वन में रहें।"

जब लक्ष्मण इस बात के लिए सहमत नहीं हुए, तब महाराज राम लक्ष्मण को सारी सच्चाई बता देते हैं।

"भैया आप भाभी के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं? और आप मुझसे यह सब करने को कह रहे हैं जिसने जीवन भर भाभी और आपकी सेवा और रक्षा का प्रण लिया हो। आप मुझसे ही कह रहे हैं कि मैं भाभी को वन में ऐसे ही असुरक्षित छोड़ दूँ वह भी ऐसी अवस्था में। मुझसे नहीं होगा, मैं नहीं करूँगा। यह काम तो आपका कोई भी सेवक कर सकता है, आप उससे कह दें, मैं भाभी को अकेले वन में नहीं छोड़ सकता।"

"लक्ष्मण यह एक भाई का निवेदन नहीं है वरन् एक राजा का आदेश है। तुमको इसका पालन करना ही होगा।"

अब लक्ष्मण के पास कहने को कुछ नहीं था,वह विवश था।

"ठीक है महाराज, जैसी आपकी आज्ञा।"

रात्रि के अंतिम प्रहर के समय जब सारी प्रजा निश्चिंत होकर सो रही थी। लक्ष्मण अपने भाभी के कक्ष में पहुँचते हैं। सीता भी तैयार थी। बस वह अंतिम समय अपने राम से मिलना चाहती थी। वह राम के कक्ष की ओर जाती हैं परंतु राम के किवाड़ तो अब सदा के लिए बंद हो चुके थे। वह बाहर से ही अपने पति का आशीर्वाद ग्रहण करती हैं और राम अंदर से ही भीगे हुए नेत्रों के साथ सीता के निःस्वार्थ और त्यागपूर्ण प्रेम से गौरवान्वित होते हैं। धन्य हो तुम सीता, अयोध्या की यह धरती और यह इक्ष्वाकु वंश तुम जैसी स्त्री को महारानी के रूप में पाकर धन्य हो गई।


[II]

 

राम आज प्रातः ही अपने कुछ सेवकों के साथ वन में प्रवेश करते हैं। पञ्चवटी निकट देख कर वह अपने सिपाहियों को वहीं रुकने का आदेश देते हैं। राम अपने रथ से उतर कर पैदल ही उन मार्गों पर चल पड़ते हैं। वह पेड़ों, लताओं, पुष्पों और मार्ग पर बिछी हुई घासों को ऐसे देख रहे हैं मानो वह सब सीता के ही रूप हो। वह कभी पुष्पों को हाथों में लेकर ऐसे निहारते जैसे वह पुष्प ही हैं जो उनको सीता तक पहुँचा सकते हैं। कभी भूमि पर बैठ कर नर्म घासों में सीता के पदों के आहट को सुनने का प्रयास करते। कभी डाल पर बैठी चिड़िया को अपने हाथों में लेकर उससे बाते करने लगते। राम कुटिया में प्रवेश करते हैं, जो लक्ष्मण ने वन प्रवास के समय निर्मित किया था। प्रवेश करते ही जैसे उनके हृदय की गति अचानक रुक जाता है क्यों कि उस कुटिया में सीता की मधुर स्मृति आज भी जीवित थी। वहाँ अभी भी सीता के पायलों की ध्वनि गूँज रही थी। सीता अपने गृहकार्यों में व्यस्त रहती थीं...उनके पायलों की ध्वनि, वन के पक्षियों की ध्वनि के साथ मिल कर एक मधुर संगीत का निर्माण किया करती थीं। राम यूँ ही घूमते हुए सीता की रसोई में जाते हैं, जहाँ सीता भोजन बनाया करती थीं। वहाँ अभी भी सीता की ध्वनि उसी तरह हवाओं में गूँज रही है-

"लक्ष्मण आओ भोजन कर लो।"

राम को यह सारी ध्वनियाँ और भी विचलित कर देती है। वह रोते हुए कुटिया से बाहर आ जाते हैं।

"सीते! मुझे क्षमा कर दो, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। तुम मुझे जो भी दंड दोगी, मुझे स्वीकार है...पर एक बार मुझे दर्शन तो दे दो।"

राम कदम्ब के नीचे बड़े पत्थर पर बैठ कर विलाप करने लगते हैं। तभी वहाँ गुरुकुल के बालकों का समूह उधर से निकलता है। वह सभी बालक एक सुंदर श्लोक का गान कर रहे थे।

"शाश्वत, शांत अप्रमेय अनघ पाप को दूर करने वाले हैं।

शांति मोक्ष, निर्वाण को देने वाले है।

समस्त पाप और ताप को चूर करने वाले हैं।

मेरे प्रभु राम शाश्वत और सर्वत्र हैं।"

ऐसी मधुर ध्वनि सुनकर राम उन बालकों को अपने पास बुलाते हैं।

"बालकों तुम लोग कौन हो और तुम लोग किसकी रचना का गान कर रहे हो? जिसे सुनकर मेरा विचलित हृदय शांत हो गया।"

सभी बालक राम को बड़े ध्यान से देखते हैं। उनमें से एक बालक जो बुद्धि में प्रखर था...जिसके कन्धों पर तूरीण और हाथों में धनुष ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे राजा राम ने पुनः बालक रूप धारण कर लिया हो। उसका चेहरा सांध्य समय की लालिमा युक्त प्रकाश में मणि की भांति चमक रहा था...घुँघराले केश उसके मस्तक पर ऐसे लहरा रहे थे जैसे स्वयं तक्षक मस्तक पर विराजमान होकर उस मणि की रक्षा कर रहे हों। वह राम को ध्यान से देखता है।

"आप कौन हैं मान्यवर? वेश-भूषा से तो आप कहीं के राजा प्रतीत होते हैं।"

"हाँ बालक, तुमने ठीक ही कहा, मैं अयोध्या नरेश राम हूँ।"

राम का नाम सुनते ही सभी बालक भूमि पर झुक कर प्रणाम करते हैं।

"तुमने बताया नहीं कि तुम लोग कौन हो और यह किसकी रचना गा रहे थे?"

"हम सब महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में रहते हैं। मेरा नाम लव और यह मेरा भाई कुश है। हम सब अपने गुरु द्वारा रचित 'रामायण' की पंक्ति का गान कर रहे थे। जिसे हमारे गुरु ने स्वयं लिखा है।"

"ओह धन्य है! तुम्हारे गुरु जिन्होंने इतनी सुंदर रचना की है और धन्य है! तुम शिष्य गण जो अपनी मनोहर ध्वनि से इसका सुंदर गान कर रहे हो, जो मन को हरने वाला है।"

"क्या आप वही राजा हैं जिन्होंने अपने प्रजा के सुख के लिए अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया था?"

राम कुछ सकुचाते हुए कहते हैं।

"हाँ, मैं वही अभागा हूँ। जो अपनी पत्नी के साथ न्याय न कर सका।"

"लेकिन मेरे गुरु जी कहते हैं कि आप बहुत महान है, जिन्होंने अपने परिवार के दायित्व को एक राजा के दायित्व के आगे तुच्छ समझा और अपने वैयक्तिक सुख की बलि चढ़ा दी।"

राम कुछ नहीं बोलते...वह तो बस उन बालकों को यूँ ही निहार रह थे...और मन ही मन सोचते हैं यदि मेरा बालक जीवित होगा तो वह निश्चय ही इतना ही बड़ा होगा।

"ठीक है राजन्! अब हम लोग चलते हैं, नहीं तो हमारी माता चिंता करेंगी"

"अच्छा, तुम्हारी माता का क्या नाम है?"

"वनदेवी।"

नाम सुनकर राम पुनः दुःखी हो जाते हैं और सोचते है काश! इनकी माता का नाम सीता होता... और यह हमारा ही पुत्र होता।

सभी बालकों का समूह पुनः गान करते हुए वहाँ से चला जाता है। राम भी अपने नगर वापस आ जाते हैं।

 

[III]

 

लव-कुश आश्रम पहुँच कर राम से भेंट का समाचार अपनी माँ को सुनाते हैं।

 

"माता आज जानती हो वन में कौन मिला था?"

"कौन मिला था? मेरे लाल।"

"आज वन में अयोध्या नरेश राम से भेंट हुई थी।"

सीता अयोध्या नरेश का नाम सुनते ही चौंक जाती हैं।

"अच्छा!! तो तुम दोनों ने उनको प्रणाम किया?"

"हाँ माता, अंततः हम लोग शिष्टाचार कैसे भूल सकते हैं...? आपने ही तो हमें सिखाया है।"

"अच्छा, समझ गयी अब तुम सयाने हो गए हो। अच्छा यह बताओ क्या-क्या बातें हुई?"

"यही, तुम्हारे गुरुदेव का क्या नाम है? माता का क्या नाम है?"

"अच्छा ठीक है, तुम लोग संध्या वंदन के लिए तैयार हो जाओ गुरुदेव प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"

पुत्रों के जाने के बाद सीता चिंतित हो जाती है और दुःखी भी। वह सोचती है "कितने अभागे हैं मेरे पुत्र पिता के पास होकर भी उन्हें पिता नहीं कह सके। नियति की कैसी विडंबना है...? एक पिता अपने सामने खड़े पुत्र को गले भी न लगा सका।"

रात्रि का समय है सीता कुटिया के बाहर चिंता मग्न टहल रही हैं। तभी ऋषि वाल्मीकि वहाँ आते हैं।

"क्या बात है सीता तुम कुछ विचलित सी लग रही हो?"

हाँ, गुरुदेव आज एक विचित्र सी घटना घटी।"

"हाँ, मैं जानता हूँ। बच्चों ने मुझे भी बताया है। तो इसमें चिंता वाली क्या बात है।"

"मैं सोच रही हूँ कि बच्चे एक न एक दिन जान ही जायेंगे कि उनकी माता कौन है?"

"तुम उसकी चिंता न करो, समय आने पर सब ठीक हो जाएगा। मैं बच्चों को समझाने का प्रयास करूँगा। अब तुम जाकर सो जाओ रात्रि गहन हो गयी है।"

"ठीक है गुरुदेव।"

सीता ऋषि वाल्मीकि को प्रणाम कर अपनी कुटिया में चली जाती हैं और मन ही मन अपने पति श्री राम को प्रणाम कर सोने का प्रयास करती हैं।

इधर राम को भी अपने कक्ष में नींद नहीं आ रही, वह जैसे ही अपने नेत्र बन्द करते लव-कुश का चेहरा उनके नेत्रों के सामने उपस्थित हो जाता है। वह परेशान होकर शय्या से उठ खड़े होते हैं और वातायन से बाहर आकाश में चमक रहे चाँद की ओर देखते हैं।

"सीते तुम कहाँ हो...? यह दो बालक मेरे मन को विचलित क्यों कर रहे। काश! तुम मेरे पास ही होती... काश! नियति इतनी निष्ठुर न होती...काश! मैं अपने बच्चों के बाल्यकाल का साक्षी बन पाता।

इधर सीता के नेत्रों में भी नींद कहाँ...? वह भी चाँद को निहारते हुए सोचती हैं- "आर्य! मेरे पुत्र कितने अभागे हैं, जो पिता के निकट होते हुए भी उन्हें पिता कह कर गले भी न लगा सके।

तभी बाहर से किसी के आने की ध्वनि सुनाई देती है।

"माता! माता!। माता! मैं आपका पुत्र हनुमान।"

सीता शीघ्र ही उठ कर बाहर आ जाती हैं।

"अरे पुत्र हनुमान! तुम! इस समय...?"

"माता, मुझे आप दोनों का दुःख देखा नहीं जा रहा।"

"तुम परेशान न हो पुत्र, जो प्रारब्ध में लिखा होगा वह तो होकर ही रहेगा, इसलिए चिंता न करो। प्रभु श्री राम का ध्यान करो, वही सब सुगम करेंगे।"

"अच्छा माता जैसी आपकी आज्ञा।"

श्री हनुमान माता सीता को प्रणाम कर जंगलों में वापस चले जाते हैं और श्री राम के ध्यान में स्थिर हो जाते हैं।

 


[IV]


ब्रह्म मुहूर्त का समय आकाश अपना सितारों भरा आँचल समेटने की तैयारी में हैं और उषा की किरणों ने मानो सिंदूरी रंग से पूर्व दिशा को रंग दिया हो। प्रातः बेला में सरयू नदी शांत और स्थिर होकर ऐसे बह रही है जैसे वह राम के ध्यान में मग्न हो। राम सरयू नदी में स्नान करते है और सूर्य को अर्घ्य देते हैं। लक्ष्मण भी राम का अनुसरण करते हैं और पूजा के लिए दोनों शिवालय की ओर बढ़ते हैं। मार्ग में एक बूढ़ी स्त्री मिलती है, जिसकी कमर झुकी हुई है और डंडे का सहारा लेकर राम का नाम लेते हुए नदी की ओर ही आ रही है। तभी मार्ग में ठोकर खा कर वह गिर पड़ती है। राम उसको देख लेते है और उसे उठाने के लिए उसके ओर बढ़ते हैं।

"माता तुम्हें चोट तो नहीं लगी।"

नहीं पुत्र। बूढ़ी हो गयी हूँ न...मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता।"

तभी वह ध्यान से राम को देखने का प्रयास करती है।

"अरे तुम तो मेरे राम हो। मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि आज मुझे राम के दर्शन हुए। क्षमा करना राजन् मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।"

"नहीं माता इसमें क्षमा की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हारी सेवा करना तो मेरा कर्तव्य है।"

"सेवा!!! हाँ... सेवा, इसी सेवा ने ही तो तुम्हें राजा राम से प्रभु राम बनाया है। तुम्हारे जैसा राजा न कभी अयोध्या को मिला था और न आगे कभी मिलेगा। अरे! यह तो अयोध्या वासियों का दुर्भाग्य है कि वह अपनी लक्ष्मी जैसी महारानी को पहचान नहीं सकी। अयोध्या वासी यह भूल गए कि महारानी तो प्रजा की माँ होती है और एक माँ पर लांछन लगाना सर्वथा अनुचित है। जब तक यहाँ की प्रजा इस बात को समझेगी तब तक बहुत विलंब हो चुका होगा।"

इतना कहते ही उस बूढ़ी माँ के आँखों से अश्रु निकल पड़ते हैं।

राम भी दुःखी हो कर वहाँ से पूजा के लिए निकल पड़ते हैं। शिव आराधना के बाद वह राज-सभा में उपस्थित होते हैं। राम के दक्षिण भाग में लक्ष्मण, भरत और सुमंत विराजमान हैं तो दूसरी ओर गुरु वसिष्ठ।

"राजन्! आज सभा प्रारम्भ करने से पहले मैं आप से एक निवेदन करना चाहता हूँ।"

"आज्ञा करें गुरु श्रेष्ठ।"

"राजन्! मेरा सुझाव है कि अब आप को अश्वमेध यज्ञ कर लेना चाहिए, जिससे इस आर्यवर्त प्रदेश में एक अखण्ड राष्ट्र की स्थापना की जा सके और सर्वत्र शांति स्थापित हो सके।"

तभी लक्ष्मण भी अपनी सहमति देते हुए बोलते हैं।

"हाँ गुरुदेव! आपने उचित ही कहा है, वास्तव में मेरी भी यही इच्छा है।

राम यह सब सुनकर चिंतामग्न हो जाते हैं।

"क्या हुआ राम तुम किस सोच में डूब गए।"

"कुछ नहीं गुरुवर, मैं सोच रहा था कि सीता की अनुपस्थिति में यह यज्ञ कैसे संभव हो सकता है?"

तभी सुमंत मध्य में हस्तक्षेप करते हुए कहते हैं।

"क्षमा करें राजन्, मेरे विचार से अब आपको दूसरा विवाह कर लेना चाहिये। धर्म भी इसकी आज्ञा देता है। वैसे भी एक राजा अपने देश की भलाई के लिए एक से अधिक विवाह कर सकता है।"

लक्ष्मण को यह सुझाव बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता और वह राज सभा से उठ कर चले जाते हैं। यह सुनकर भरत भी अपनी असहमति प्रकट करते हुए वहाँ से प्रस्थान करते हैं। इन दोनों के जाने के पश्चात राम गुरु वशिष्ठ से कहते हैं।

"गुरुवर मैंने सीता के सामने आजीवन एक पत्नी-व्रत रहने की प्रतिज्ञा की थी। मैं इस प्रतिज्ञा को कैसे भंग कर सकता हूँ?"

"तुम सर्वथा उचित ही कह रहे हो राम। मुझे कुछ दिन का समय दो। मैं इस विषय पर विचार करता हूँ।"

गुरु वशिष्ठ भी राज सभा के कार्यों से मुक्त होकर अपने आश्रम वापस आ जाते हैं।

 

[V]

 

आज ऋषि वाल्मीकि लव-कुश को धनुर्विद्या के कुछ नए गुण सिखाते हैं।

"देखो लव-कुश, एक क्षत्रिय शस्त्र का प्रयोग सदैव धर्म की रक्षा के लिए ही करता है। इस शस्त्र का प्रयोग तुम अपने स्वार्थ-पूर्ण इच्छाओं या निःसहायों के ऊपर नहीं कर सकते। शस्त्र तभी उठाया जाता है जब वह अंतिम विकल्प के रूप में हो। बिना सोचे-समझे शस्त्र उठाने से व्यक्ति और समाज दोनों ही का विनाश हो जाता है और इस तरह वह व्यक्ति अपयश का भागी बनता है।"

"जी गुरुदेव हम लोग अच्छी तरह से समझ गए।"

"अच्छा ठीक है, अब भिक्षाटन का समय हो गया है, तुम लोग नगर के लिए प्रस्थान करो।"

"जैसी आज्ञा गुरुदेव।"

माता सीता भी दिनचर्या में व्यस्त हैं वह अपनी कुटिया की मिट्टी से लेप और भूमि को गोबर से लेपने के पश्चात कुएँ से पानी लेने जाती हैं। बालकों के कपड़े धोने के बाद वह आश्रम में हो रहे यज्ञ समारोह में भाग लेती हैं। सीता वहीं एक स्थान पर बैठ जाती हैं। यज्ञ से उठने वाला धुआँ समग्र आकाश को आच्छादित कर रहा है। यज्ञ वेदी से उठने वाली अग्नि उस काले धुएँ के बीच एक ज्ञान रूपी लव की भांति ऊर्धगामी हो रही है। सीता भी वहीं बैठी पुन: राम की स्मृतियों में ध्यानस्थ हो जाती हैं। उन्हें आज भी वह दिन स्मरण है जब पञ्चवटी में गृह-प्रवेश के समय ऐसी ही यज्ञ की अग्नि पूरे पञ्चवटी को अपने तपिश में निमग्न कर रही थी। राम बार-बार मेरी ओर देख रहे थे और अपने अम्बर से मेरे मुख पर निकलने वाली स्वेद बिन्दुओं को पोंछ रहे थे। कितने अच्छे दिन थे वह...वन में रहते हुए भी हम लोग कितने प्रसन्न थे। यह सोचते हुए एक निश्छल-सी हँसी उसके अधरों पर फैल जाती हैं। वाल्मीकि भी सीता की इस खोई ही स्थिति को देखकर मन ही मन प्रसन्न होते हैं और प्रार्थना करते हैं कि माता गौरी दोनों की भेंट शीघ्र कराएं।

लव-कुश दोनों रामायण के श्लोक गा-गा कर भिक्षा एकत्र करते हैं। वह जहाँ भी जाते चारों ओर भीड़ एकत्र हो जाती। उनके संगीत में इतना आकर्षण था कि जिस किसी के भी कानों में उनकी ध्वनि जाती वह बरबस ही उनकी ओर खींचा चला आता था।

"कितने सुंदर बालक हैं, अवश्य ही ऊँचे कुल के होंगे।"

"कितना तेज है, इन ब्रह्मचारियों में...।

"हाँ, ऋषि वाल्मीकि के आश्रम से हैं। अवश्य ही ये उनके शिष्य होंगे, अध्यापन कार्य के लिए उनके गुरुकुल में रहते होंगे।"

"इनकी ध्वनि में कितनी पीड़ा है। राम-वनवास की कथा सुनकर वह पुरानी स्मृतियाँ पुनः वर्तमानस्थ हो गयी हैं।"

"हाँ, तुम सच कह रहे हो।"

यह कहते हुए वह अपने आँखों से निकलने वाले अश्रुओं को रोक नहीं पाते।

 

[VI]

 

आज कार्तिक मास की अमावस्या है। राम को वनवास से लौटे हुए आज पूरे बारह वर्ष बीत गए। प्रजा आज भी उन सुंदर स्मृतियों को समारोह के रूप में मनाती है। प्रातः काल से ही प्रासाद में राम के दर्शन पाने के लिए लोगों की भीड़ लगी हुई है। थोड़े ही देर में राम उपस्थित होते हैं और सबको दर्शन देते हैं। सभी लोग झुक कर राम को प्रणाम करते हैं।

"राजा राम की... जय!!!"

पूरा आकाश राम नाम के उद्घोष से गूँज उठता है। कुछ लोग राम से सीता को वापस लाने का आग्रह करते हैं तो कुछ लोग अभी भी मौन हैं।

राजन् महारानी के बिना पूरी नगरी की स्थिति ऐसी हो गयी है जैसे बिन माँ के बालक की होती है।"

"हाँ, राजन् हम सब यही चाहते हैं कि रानी सीता पुनः महारानी पद को सुशोभित करें।"

"हाँ, महाराज! आप चंद लोगों की चिंता न करें।"

"मुझे प्रसन्नता है कि आप लोग ऐसा सोचते हैं, परन्तु जब तक अयोध्या का प्रत्येक नागरिक ऐसा नहीं चाहेगा, तब तक मैं सीता को वापस नहीं ला सकता। मेरे लिए प्रजा की इच्छा ही सर्वप्रथम है। मैं नहीं चाहता कि मेरे किसी भी निर्णय से किसी भी व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुँचे।"

यह वचन सुनकर सारी प्रजा राम की जय-जयकार करती है।

संध्या समय पूरी अयोध्या दुल्हन की तरह सज जाती है। पूरा नगर दियों के प्रकाश से चमक उठता है। चारों ओर नृत्य-संगीत की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

गुरुकुल में भी राम के वनागमन के वर्षगाँठ का उत्सव मनाया जाता है। लक्ष्मी और गणेश की पूजा की जाती है तत्पश्चात यज्ञ-हवन के द्वारा महाराज और महारानी के स्वास्थ्य और उनके उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना की जाती है साथ ही अयोध्या के सुंदर भविष्य की भी प्रार्थना की जाती है। सारे आश्रम को दीपकों से सजाया जाता है। माता सीता और लव-कुश दोनों आश्रम को सुसज्जित करते हैं और पूजा में सम्मिलित होते हैं।

"माता हम लोग आज उत्सव क्यों मना रहें हैं?"

सीता मुस्कुराते हुए कुश से कहती है_

"पुत्र! आज ही के दिन महाराज राम, सीता और लक्ष्मण अपना वनवास समाप्त कर पुष्पक विमान से अयोध्या वापस आये थे।"

लव मध्य में ही बोल उठता है-

"हाँ, माता मैंने गुरुदेव की रामायण पढ़ी है। पर माँ... हनुमान जी कहाँ हैं? क्या वह भी राम के साथ अयोध्या आये थे?"

"इस प्रश्न का उत्तर तो तुम्हें गुरुदेव ही देंगे। उन्हीं से पूछो।"

दोनों दौड़ते हुए गुरुदेव को ढूँढ़ते हैं परंतु ऋषि वाल्मीकि कहीं दृष्टिगत नहीं होते।

तभी एक डमरू बजाता हुआ शिव-शिव की धुनी रमाता हुआ, नृत्य करता हुआ एक युवक उधर से निकलता है। वह आश्रम में नया था, बालकों ने पहले कभी उसे यहाँ नहीं देखा था।

"तुम कौन हो?"

"तुमको पहले तो कभी यहां नहीं देखा।"

"मैं तो रंगोपजीवी हूँ। स्थान-स्थान पर रुक कर नाटक प्रस्तुत करता हूँ।"

"अच्छा तो यहाँ क्या कर रहें?"

"मैं तो यहाँ ऋषि वाल्मीकि से मिलने आया हूँ। मैंने सुना है, उन्होंने रामायण की रचना की है। उसी संबंध में मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।

"ठीक है, तुम्हारा नाम क्या है?

"मेरा नाम केसरी नंदन है।"

"चलिए, मैं आपको अपने गुरुदेव से मिलवा देता हूँ।"

लव-कुश दोनों केसरी को लेकर ऋषि वाल्मीकि को ढूँढते हुए उपस्थित होते हैं।

"प्रणाम गुरुदेव! गुरुदेव, यह केसरी नंदन आप से मिलना चाहता है।"

ऋषि वाल्मीकि केसरी नंदन को देखते ही पहचान जाते हैं। दोनों ही मन-ही-मन एक दूसरे को प्रणाम करते हैं।

"प्रणाम ऋषि-वर।"

"आशीर्वाद, कहो यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

"ऋषि-वर! मैं एक रंगोपजीवी हूँ। नाटक मंचन के द्वारा अपना जीविकोपार्जन करता हूँ। मैंने सुना है, आपने "रामायण" नामक सुंदर महाकाव्य के द्वारा राजा राम के जीवन की अद्भुत गाथा लिखी है। वह कथा मैं सुनना चाहता हूँ ताकि मैं उसका सजीव मंचन कर सकूँ।"

"अरे! यह कौन सी बड़ी बात है। महाराज राम की जीवन-गाथा तो यहाँ का प्रत्येक बच्चा जानता है।"

"तुम लव-कुश से ही क्यों नहीं पूछ लेते...? इन्हें तो पूरी रामायण अक्षरशः कंठस्थ है। लव-कुश तुम केसरी नंदन की सहायता करोगे न?"

"अवश्य गुरुदेव।"

तभी माता सीता भी लव-कुश को ढूँढते हुए वहाँ आ जाती हैं।

"अरे कुश-लव चलो पुत्र बहुत रात हो गयी। शयन का समय हो गया है।"

"माता इनसे मिलो, यह केसरी नंदन है। कल से हम इन्हें रामायण सुनाएंगे।"

माता सीता केसरी नंदन को देखती हैं और समझ जाती हैं कि यह तो उनका प्रथम पुत्र हनुमान है। हनुमान सिर झुका कर माता को प्रणाम करते हैं और मन ही मन पुत्रों की संगति की आज्ञा माँगते है।

"ठीक है पुत्रों, अभी तो रात हो गयी, कल से तुम केसरी नंदन को महाराज की जीवन-गाथा सुनाना।"

केसरी नंदन बहुत खुश होता है और सबको प्रणाम कर के वहाँ से चला जाता है।

 

[VII]

 

दूसरे दिन राज-गुरु वशिष्ठ सभा में उपस्थित होते हैं।

"राजन! अश्वमेध यज्ञ संभव हो सकता है।"

"वह कैसे गुरुदेव?" राम उत्सुकता से पूछते हैं।

"राजन! पत्नी के उपस्थित न होने पर हम उसकी कोई वस्तु जैसे वस्त्र या उसका चित्र या मूर्ति बना कर हम धार्मिक कार्य सम्पन्न कर सकते हैं।"

लक्ष्मण बहुत प्रसन्न होते है।

"भैया यह तो उचित है, मैं अभी राज-मूर्तिकार से मिलता हूँ और उसे भाभी की स्वर्ण मूर्ति बनवाने का आदेश देता हूँ।"

"ठीक है लक्ष्मण, तुम जैसा उचित समझो।"

लक्ष्मण मूर्तिकार विष्णु से मिलते है।

"विष्णु, महाराज अश्वमेध यज्ञ करना चाहते हैं, परन्तु एक समस्या है।

"वह क्या कुमार?"

"समस्या यह है कि महारानी यहाँ नहीं है अतः महाराज चाहते है कि तुम महारानी सीता की बैठी हुई स्वर्णमयी मूर्ति का निर्माण करो। जो यज्ञ के समय महाराज के वाम भाग में विराजित होगी।"

"ठीक है कुमार, जैसी महाराज की आज्ञा, परन्तु कुमार एक समस्या है।"

"वह क्या?"

"वह यह कि मैंने महारानी को कभी इतने निकट से नहीं देखा कि मुझे उनका मुख मंडल स्मरण हो।"

लक्ष्मण भी सोच में पड़ जाते हैं क्योंकि उन्होंने ने भी सदैव भाभी के सामने सिर झुका कर के ही भेंट की है। कुछ देर सोचने के बाद वह विष्णु से कहते हैं।

"तुम चिंता न करो, तुम कल प्रासाद आ जाना, उर्मिला तुम्हारी सहायता करेंगी।"

दूसरे दिन विष्णु लक्ष्मण से मिलता है और उर्मिला की सहायता से एक पत्र पर सीता की छवि बनाने का प्रयास करता है। देवी उर्मिला कहती हैं-

"दीदी का सौंदर्य अप्रतिम है, मुख पर सूर्य का तेज है और व्यवहार चन्द्रमा की तरह शीलवान है। पहाड़ों की तरह उन्नत उनका मस्तक है। समुन्द्र की गहराइयों से भी गहरे उनके नेत्र, कमल दल के समान लालिमा युक्त कपोल और उनके अधरोष्ठ रक्त पाटल की समान रक्तिम और मृद्धिका के समान रसीले

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