दोपहर का समय था । 'लाउड स्पीकर' नामक अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में काफी चहल-पहल थी। यह एक प्रमुख तथा लोकप्रिय पत्र था। प्रधान सम्पादक अपने कमरे में मेज के सामने विराजमान थे। इनकी बयस पचास के लगभग थी। इनके सम्मुख दो सहकारी सम्पादक उपस्थित थे। तीनों व्यक्ति मौन बैठे थे-मानो किसी एक ही बात पर तीनों विचार कर रहे थे। सहसा प्रधान सम्पादक बोल उठे-"रुपये का कोई विचार नहीं। रुपया चाहे जितना खर्च हो जाए; परन्तु केस का विवरण सब से पहले हमारे पत्र में प्रकाशित होना चाहिए।" "यह बात सर्वथा रिपोर्टर के कौशल पर निर्भर है।" "निःसंदेह! यदि रिपोर्टर कुशल न हुआ तो रुपया खर्च करके भी कोई लाभ न होगा।" दूसरा सम्पादक बोला। "खैर यह मानी हुई बात है कि बिना अच्छा रिपोर्टर हुए काम नहीं हो सकता। अपने यहाँ का कौन सा रिपोर्टर इस कार्य के योग्य है।" "मेरे ख्याल से तो मि॰ सिनहा इस कार्य को कर लेंगे।" "मेरा भी ख्याल ऐसा ही है।" "मैंने मि० सिनहा को बुलाया तो है।" "अभी तो वह आए नहीं हैं।" "मैंने कह दिया है कि जिस समय आवें मेरे पास भेज देना।" यह कहकर सम्पादक ने घन्टी बजाई। तुरन्त एक चपरासी अन्दर आया सम्पादक ने उससे कहा-"मि॰ सिनहा आये हैं? देखो तो!" चपरासी चला गया। कुछ क्षण पश्चात आकर बोला-"अभी तो नहीं आये। "आते होंगे!" कहकर सम्पादक महोदय पुनः सहकारियों से बात करने लगे। कुछ देर पश्चात् एक व्यक्ति सम्पादक के कमरे में प्रविष्ट हुआ। यह व्यक्ति यथेष्ट ह्रष्ट-पुष्ट था। वयस 25, 26 के लगभग गौरवर्ण, क्लीनशेव्ड, देखने में सुन्दर जवान था। उसे देखते ही सम्पादक महोदय ने कहा-"आइये मि० सिनहा! मैं आपकी प्रतीक्षा ही कर रहा था।" मि० सिनहा मुस्कराते हुए एक कुर्सी पर बैठ गये और बोले--"कहिये, क्या आज्ञा है?" "भाई बात यह है कि 'कला भवन का उद्घाटन हो रहा है। उसमें महाराज की स्पीच होगी। वह स्पीच सबसे पहले हमारे पत्र में प्रकाशित होनी चाहिए।" मि. सिनहा ने कहा-"सो तो होना ही चाहिए।" "परन्तु इस कार्य को करेगा कौन? आप कर सकेंगे?" मि. सिनहा विचार में पड़ गये। सम्पादक महोदय बोले--"खर्च की चिन्ता मत कीजिएगा।" मि. सिनहा बोले- "प्रयत्न करूँगा। सफलता का वादा नहीं करता।" "सफलता का वादा तो कोई नहीं कर सकता। परन्तु अच्छे से अच्छा प्रयत्न करने का वादा किया जा सकता है।" "वह मैं निश्चय ही करूंगा। अभी काफी समय है। " "हाँ दस दिन हैं।" तो यदि मुझे आज से ही इस कार्य के लिए मुक्त कर दिया जाए तो अधिक अच्छा रहेगा।" "हाँ, हाँ ! आज से आप मुक्त हैं और जितना रुपया उचित समझे ले लें।" "अच्छी बात है। मैं आज रात को ही प्रस्थान करूंगा। रात में कोई ट्रेन जाती है?" "हाँ, जाती है।" "तो बस उसी से प्रस्थान करूँगा।'
( 2)
मि० सिनहा एक होटल में ठहरे हुए थे। रात को 8 बजे के लगभग मि. सिनहा सूटेड-बूटेड होकर निकले। बाहर आकर उन्होंने एक तांगा लिया और सीधे कला भवन की प्रबन्ध समिति के अध्यक्ष के यहाँ पहुंचे। "यह महाशय एक क्षत्रिय थे। सुशिक्षित कला-पारखी, धनाढ्य! मि. सिनहा को उन्होंने बड़ी आवभगत से लिया। कुछ देर बैठने के पश्चात वर्मा जी बोले--तो आप उद्घाटन समारोह देखने आये हैं।" "जी! महाराज तो कदाचित एक दिन पूर्व आ जायेंगे।" "जी हाँ, महाराज शनिश्चर की शाम को आ जाएंगे--इतवार को उद्घाटन है। "देखने योग्य समारोह होगा।" "जी हाँ! हम लोग प्रयत्न तो ऐसा ही कर रहे हैं।" "उस अवसर पर महाराज का भाषण भी होगा।" "जी हाँ। अवश्य होगा।" "महाराज बोलते तो अच्छा हैं।" "हाँ। अधिकतर उनकी स्पीच पहले से तैयार कर ली जाती है। ऐसा सुना है।" "इस अवसर के लिए तो महाराज की स्पीच तैयार हो गई होगी?" "अवश्य हो गई होगी।" "छपवा ली गई है क्या? " "यह नहीं कहा जा सकता। महाराज अपने साथ ही लाएंगे।" " खैर जो भी हो, समारोह शान का होगा।" "इसमें कोई सन्देह नहीं।" इसी समय एक अष्टादश वर्षीय युवती जिसकी वेश-भूषा अप-टू-डेट थी, कमरे में प्रविष्ट हुई। वह आकर वर्मा जी के निकट बैठ गई। वर्मा जी बोले--"यह मेरी कन्या सुनन्दा है। इसने इस वर्ष बी० ए० में प्रवेश किया है।" सुनन्दा गेहुँए रंग की लड़की थी। नखशिख भी साधारण था। उसके हाव भाव में कुछ पुरुषत्व था। वर्माजी के यहाँ दो दिन जाने पर मि० सिनहा को ज्ञात हुआ कि सुनन्दा उनकी ओर अधिक आकर्षित होती है। यह ज्ञात होने पर मि० सिनहा मन ही मन मुस्कराये। सुनन्दा की ओर उनका आकर्षण बिल्कुल नहीं था प्रत्युत वह उससे अलग-अलग रहने की चेष्टा करते थे। सहसा मि० सिनहा को कुछ ध्यान आया। उस ध्यान के आते ही उन्होंने सुनन्दा के प्रति अपना व्यवहार बदल दिया। अब वह उससे खूब घुल-घुलकर वार्तालाप करने लगे। उसके साथ घूमने-फिरने भी जाने लगे। तीन चार दिन में ही उन्होंने सुनन्दा से यथेष्ट घनिष्ठता उत्पन्न कर ली। अब उद्घाटन समारोह के केवल दो दिन रह गये थे। संध्या समय मि. सिनहा बैठे सुनन्दा से वार्तालाप कर रहे थे। इसी समय वह बोले-"महाराज कल आ रहे हैं! "हाँ, कल आ जाएंगे--ऐसा समाचार है।" सुनन्दा ने कहा। "ठहरेंगे तो यहीं।" "हाँ। उनके ठहरने के लिए सब प्रबन्ध कर लिया गया है।" "महाराज उद्घाटन समारोह पर व्याख्यान भी देंगे। ऐसा सुना है।" "व्याख्यान तो अवश्य देंगे।" "यह भी सुना है कि वह अपनी स्पीच छपवाकर ला रहे हैं।" "शायद, मुझे ठीक मालूम नहीं।" "उनकी स्पीच की एक छपी प्रति मिल जाती तो बड़ा अच्छा था।" "सो तो सबको बांटी जाएगी।" "वह तो समारोह के दिन बाँटी जाएगी। मैं एक दिन पहले चाहता हूँ। "अच्छा । क्यों?" एक बेवकूफी कर बैठा हूँ।" "वह क्या ?" "एक मित्र से शर्त बद ली है कि मैं महाराज की स्पीच एक दिन पहले प्राप्त कर लूंगा।" "ऐसी शर्त क्यों बदी?" "बात ही बात में ऐसा हो गया।" "पूरी हो जाएगी?" "यह तो मैं स्वयं पूछने वाला था।" "मुझसे!" "हाँ!" "मुझे स्पीच से क्या मतलब?" "परन्तु मुझे तो है और तुम्हें मुझसे है और तुम्हारे यहाँ ही महाराज ठहरेंगे।" यह कहकर मि॰ सिनहा ने सुनन्दा के कन्धे पर हाथ रख दिया। सुनन्दा मुस्कराकर बोली--"यह बात है।" "तुम चाहोगी तो मिल जाएगी।" "देखो, प्रयत्न करूंगी।" "प्रयत्न करोगी तो अवश्य मिल जाएगी।" "ठीक नहीं कह सकती।" "मैं कह सकता हूँ तुम्हारे लिए यह कार्य बड़ा सरल है।" मि॰ सिनहा की बात सुनकर सुनन्दा विचार में पड़ गई।
(3)
महाराज आ गये। जिस कोठी में महाराज ठहरे थे वह कोठी मि० वर्मा की ही थी--और उनकी अपने रहने की कोठी से मिली हुई थी। कोठी के चारों ओर हथियार बन्द पुलिस का पहरा था। सुनन्दा अपने पिता के साथ महाराज से मिली। महाराज उससे वार्तालाप करके बड़े प्रसन्न हुए। बातचीत के प्रसंग में वर्मा जी ने महाराज से पूछा--"अपनी स्पीच तो श्रीमान् छपवाकर लाये होंगे। "हाँ! छपवा कर लाया हूँ।" सुनन्दा बोली--"मैंने सुना है महाराज बड़ी सुन्दर अंग्रेजी बोलते हैं। स्पीच बड़ी अच्छी होगी।" महाराज हँस पड़े। उन्होंने पूछा--"क्या तुमने पहले कभी मेरी स्पीच नहीं पढ़ी?" "नहीं श्रीमान्, मुझे अभी तक ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।" "अच्छा! पढ़ोगी?" "नि:संदेह अभी मिल जाए तो रात में बिस्तर पर लेटकर पढ़ने में आनन्द आता है।" महाराज हँस पड़े। उन्होंने कहा--"अच्छा! अभी देता हूँ।" यह कहकर महाराज ने स्पीच की प्रतियों का बंडल निकलवाया और उसमें से एक प्रति निकाल कर सुनन्दा को दी।" वर्मा जी बोल उठे--"किसी दूसरे के हाथ में न पड़ने पाए! जब तक स्पीच उद्घाटन के अवसर पर पढ़ न दी जाए तब तक किसी दूसरे के हाथ में न पड़नी चाहिए।" सुनन्दा--"मैं इसका पूरा ध्यान रखूंगी।" "पढ़के मुझे लौटा देना।" वर्मा जी ने कहा। "अच्छा, लौटा दूंगी।" सुनन्दा भाषण लेकर अपनी कोठी में आई। उसने आते ही मि० सिनहा को फोन किया। मि० सिनहा के आने तक सुनन्दा ने भाषण स्वयं पढ़ डाला। पन्द्रह मिनट पश्चात नौकर ने मि० सिनहा के आने की सूचना दी। सुनन्दा मि० सिनहा के पास मुँह लटकाये हुए पहुंची और बोली, "भाषण तो नहीं मिल सका।" मि० सिनहा का मुख मलिन हो गया, वह बोले-"यह तो बड़ा गड़बड़ हुआ।" सहसा सुनन्दा खिलखिला कर हँस पड़ी और उसने भाषण की प्रति दिखाकर कहा-"यह है भाषण।" मि॰ सिनहा का मुख खिल उठा। उन्होंने उत्सुकता पूर्वक हाथ बढ़ा कर भाषण लेना चाहा। सुनन्दा हाथ पीछे हटाकर बोली--"पहले इनाम तो दिलवाओ।" "इनाम! भाषण तो तुम्हारे हाथ में है और इनाम मुझसे मांग रही हो। मेरे हाथ में देकर इनाम मांगो।" "दोगे?" "अवश्य!" सुनन्दा ने भाषण दे दिया। मि. सिनहा ने उसे खोलकर देखा। सुनन्दा ने पूछा--"है वही धोखा तो नहीं है?" "नहीं। धोखा नहीं है।" "अब इनाम मिलना चाहिए।" "हाँ ! हाँ ! यह लो इनाम!" यह कहकर मि० सिनहा ने सुनन्दा को घसीट कर अपने अंक में ले लिया।
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महाराज की स्पीच सबसे पहले 'लाउड स्पीकर" में प्रकाशित हुई। जिस दिन उद्घाटन समारोह होने वाला था उसी दिन प्रातःकाल 'लाउड स्पीकर' में महाराज का सम्पूर्ण भाषण प्रकाशित हो गया। प्रधान सम्पादक ने मि॰ सिनहा की बड़ी प्रशंसा की उन्होंने पूछा--"परन्तु भाषण तुम्हें कैसे मिल गया?" मि० सिनहा ने कुछ खेल के साथ कहा--"क्या बताऊँ! इस समय एक प्रेमकान्त युवती अपने उस प्रेमी की प्रतीक्षा में होगी जो एक धनाढ्य परिवार का सुशिक्षित लड़का था, जो उद्घाटन समारोह देखने आया था और जिसने उस युवती से विवाह करने का वादा किया था। जिसके लिए उसने न जाने किस युक्ति से भाषण की प्रति प्राप्त की थी और जो भाषण की प्रति लेकर केवल प्रथम बार युवती का आलिगन-चुम्बन करके चला गया और फिर अभी तक लौटकर नहीं आया - कदाचित कभी न आयेगा।" यह कहकर मि॰ सिनहा ने एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ी। सम्पादक महोदय बोले--"बड़े हृदयहीन हो, एक भोली भाली लड़की को धोखा देकर चले आये।" "मैं हृदयहीन तो नहीं हूँ। मैं हूँ एक पत्रकार! और एक पत्रकार को बहुधा हृदयहीन बनना ही पड़ता है।" "ठीक कहते हो!" सम्पादक ने मुँह बनाकर सिर हिलाते हुए गम्भीरतापूर्वक कहा।
--विश्वम्भर नाथ शर्मा ‘कौशिक' |