चल पड़े जिधर दो डग, मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर; गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज हाथ धरा उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ जिस पर निज मस्तक झुका दिया झुक गए उसी पर कोटि माथ;
हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु हे कोटि रूप, हे कोटि नाम ! तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम !
युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख, तुम अचल मेखला बन भू की खीचते काल पर अमिट रेख;
तुम बोल उठे युग बोल उठा तुम मौन रहे, जग मौन बना, कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर युगकर्म जगा, युगधर्म तना;
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक युग संचालक, हे युगाधार ! युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें युग युग तक युग का नमस्कार !
दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से तुम काल-चक्र की चाल रोक, नित महाकाल की छाती पर लिखते करुणा के पुण्य श्लोक !
हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा, पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र ? इस राजतंत्र के खण्डहर में उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र !
-सोहनलाल द्विवेदी |