कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय॥
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
जो तोकौ काँटा बुवै, ताहि बोवे फूल। तोहि फूल को फूल है, वा को है तिरसूल॥
दुर्बल को न सताइये, जा की मोटी हाय। बिना जीव की- स्वास से, लोह भसम ह्वै जाय॥
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय। औरन कौं सीतल करै, आपहु सीतल होय॥
हस्ती चढ़िए ग्यान की, सहज दुलीचा डारि। स्वान रूप संसार है, भूंकन दे झख मारि॥
आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक। कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक॥
जैसा अन-जल खाइये, तैसा ही मन होय। जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय॥
करता था तो क्यों रहा, अब करि क्यों पछिताय। बोवै पेड़ बबूल का, आम कहाँ ते खाय॥
दान किये धन ना घटे, नदी ना घटै नीर। अपनी आँखों देखिये, यों कहि गये कबीर॥
रूखा-सूखा खाइ कै, ठंडा पानी पीव। देख विरानी चोपड़ी, मत ललचावै जीव॥
- कबीर
|