जिस दिन अपनी हर आस्था तिनके-सी टूटे जिस दिन अपने अन्तरतम के विश्वास सभी निकले झूठे ! उस दिन होंगे वे कौन चरण जिनमें इस लक्ष्यभ्रष्ट मन को मिल पायेगी अन्त में शरण ?
हम पर जब छाये भ्रम दोहरा जर्जर तन पर कल्मष, हारे मन पर कोहरा हर एक सूत्र जिसको हम समझे प्रभु का स्वर कसने पर साबित हो केवल शब्दाडम्बर ! हर कदम पड़े झूठा जैसे चौसर का पिटा हुआ मोहरा उस दिन होंगे वे कौन चरण जिनमें इस लक्ष्य भ्रष्ट मन को मिल पायेगी अन्त में शरण ?
जिनकी लय पर साधे हमने आत्मा के स्वर वे अकस्मात् मुड़ जिस दिन गह लें पय दूजा होठों में रह जाये केवल घुटती पूजा माथे के नीचे रह जाये ठण्डा पत्थर ! उस दिन होंगे वे कौन चरण जिनमें इस लक्ष्य भ्रष्ट मन को मिल पायेगी अन्त में शरण !
सब जलने पर जो शेष रहे कण भर सोना कंपती अंगुलियों से हमको, जिस रोज पड़े वह भी खोना अपनी सांसे तक जब भूलें अपना परिचय पैरों नीचे तक की धरती जिस रोज न दे हमको आश्रय जब हमें निगलने दौड़े खुद अपने मन का कोना कोना !
उस दिन होंगे वे कौन चरण जिनमें इस लक्ष्य भ्रष्ट मन को मिल पायेगी अन्त में शरण !
उस दिन मैं दूंगा तुम्हें शरण मैं जनपथ हूँ ! मैं प्रभु पथ हूं, मैं हूं जीवन ! जिस क्षितिज रेख पर पहुंच व्यक्ति के सब पथ कुण्ठित हो जाते मैं उस सीमा के बाद पुनः उठने वाला नूतन अथ हूँ ! जिसमें हर अन्तर्द्वन्द विरोध, विषमता का हो जाता है। अन्त में शमन !"
प्रभु, पर तुम तो केवल पथ हो ! चलना तो हमको ही होगा ! हिम की ठंडी चट्टानों पर गलना तो हमको ही होगा ! हम टूटे और अधूरे हम----इस प्रभु-पथ को, इस जन-पथ को कर पाएंगे किस तरह ग्रहण ?
आखिर होंगे वे कौन चरण जिनमें इस लक्ष्य भ्रष्ट मन को मिल पायेगी अन्त में शरण ?
धर्मवीर भारती [धर्मयुग, अक्टूबर 1951] |