उन पीले ज़र्द कागज़ों के पास कहने को बहुत कुछ था। उन कोरे नए कागज़ों के पास भीनी महक के अलावा कुछ न था। पीले पड़ चुके कागज़ों की स्याही भी धुँधला गई थी कोनों से होने लगे थे रेशा-रेशा पर कितने अनकहे अनुभवों-अनुभूतियों को लिये थे वे।
हालाँकि नये कागज़ चिकने भी थे और उन पर लिखा जाना था बहुत कुछ। शायद और भी बेहतर फिर भी भिगो गये थे आँखों को बड़े अपने से लग रहे थे पुराने हो गए पन्ने जो फड़फड़ा रहे थे मन में।
-स्वरांगी साने |