भिखारी ठाकुर (18 दिसम्बर, 1887 - 10 जुलाई, 1971) भोजपुरी के लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत तथा भजन-कीर्तन के साधक थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी में काव्य और नाटक विधा में बहुत काम किया। भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के स्वामी थे। वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में भिखारी ठाकुर, 'भोजपुरी के शेक्सपियर' और अनगढ़ हीरा हैं।' जगदीशचंद्र माथुर ने इन्हें 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार' बताया था।
कुछ समय पहले तक भिखारी ठाकुर के भोजपुरी गीत खूब गूँजा करते थे। भारत में इन दिनों भिखारी ठाकुर का लोक संगीत अवश्य आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त होता दिखाई देता है लेकिन फीजी, मॉरीशस और सूरीनाम में यह आज भी लोक-कंठों में विद्यमान है।
'कहत भिखारी भिखार होई गइलीं, दौलत बहुत कमा के' यानी मैंने इतना धन कमाया कि दरिद्र हो गया।
उपर्युक्त पंक्ति भिखारी ठाकुर की प्रसिद्ध नृत्य-नाटिका 'बिदेसिया' के नायक का कथन है। नायक धन कमाने कलकत्ता जाता है। वहाँ खूब धन कमाने के बाद उसे आत्मज्ञान होता है और बरबस उपर्युक्त पंक्ति उसके मुंह से निकाल पड़ती है।
'बिदेसिया' प्रवासियों द्वारा अपने परिजनों को दिए गए संदेशों का भावात्मक रूप है। 'बिदेसिया' लोक संस्कृति की परिधि के बाहर एक नई लोक संस्कृति के रूप में व्यक्त हुई थी। इसकी अभिव्यक्ति नृत्य नाटिका, लोक संगीत और लोक चित्रकला के माध्यम से हुई। 'बिदेसिया' भोजपुरी क्षेत्र की देन है।
भिखारी ठाकुर अपने परिचय में कहते हैं--
नाम भिखारी, काम भिखारी, रूप भिखारी मोर,
ठाठ पलानी, मकान भिखारी, चहुंदिसि भइल सोर।
केदारनाथ सिंह ने 1995 में इस लोक कलाकार पर कविता लिखी थी, जिसका शीर्षक 'भिखारी ठाकुर' है।