यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये।
लाहौर षड्यंत्र अभियोग में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिकारियों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र,जबकि सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से प्रायः मारपीट किया करते थे। इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी। जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने यतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है, ‘विजय या मृत्यु।'
यतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था। यतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।
अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन खाद्य-पदार्थों को छूना तो दूर देखते तक न थे।
जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। यतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।
यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।
13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज यतीन्द्र के चेहरे पर विशेष मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने यतीन्द्र का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे' और फिर ‘वन्दे मातरम्' गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी यतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया।
[ भारत-दर्शन संकल]
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