बौद्ध धर्म के विषय में प्रायः एक भ्रांति लोगों के मन में यह रहती है कि यह मात्र एक धर्म है जो हमें हिन्दू धर्म के विपरीत आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है। जबकि वास्तविकता यह है कि बौद्ध धर्म शैक्षिक मानव जीव के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में लोक कल्याण की दीक्षा देता है। बौद्ध धर्म विश्व के सभी धर्मों में अपना अद्वितीय स्थान रखता है। इस धर्म ने मानव लोक कल्याण की भावना को जन्म दिया और शान्ति का उपदेश देकर सबसे पहले पंचशील के विषय में अवगत कराया। लोगों को समता-करुणा-प्यार के साथ रहना सिखाया। बौद्ध धर्म सुखमय जीवन बिताने का मार्ग प्रशस्त करता है।
‘‘महामंगलसुत्त'' और ‘‘करणीयमेत्तसुत्त'' विश्व के मानव को बन्धुता के सूत्र में आबद्ध रखने में आज भी सक्षम है। इसमें सुशिक्षित होना, शिल्प प्रशिक्षित होना, विनयशील होना, मृदुभाषी होना, माता-पिता की सेवा करना, पत्नी और सन्तानों का पालन-पोषण करना, अहितकारी कर्मों से दूर रहना, दान देना, पवित्र जीवन बिताना, आपत्ति-विपत्ति आने पर साहसपूर्वक उसका सामना करना और विचलित न होना क्रोध पर विजय प्राप्त
करना और क्षमाशीलता को न खोना आदि ‘‘महामंगलसुत्त'' प्रमुख बातें हैं। बौद्ध धर्म मानव को स्वतंत्र जीवन जीना सिखाता है। यही कारण है कि भारत में जब-जब बौद्ध शासकों का शासन हुआ देश की राजनैतिक और सांस्कृतिक सीमाएं बढ़ती ही गयीं। उनके समय में भारत कभी परतन्त्र नहीं हुआ बौद्ध धर्म को मानने वाले म्यांमर, बर्मा, थाईलैण्ड, श्रीलंका, जापान कोरिया, चीन जैसे राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपने शरीर के रक्त की अंतिम बूँद तक संघर्षरत प्रयासरत एवं प्रयत्नशील रहते हैं।1
भगवान बुद्ध ने उस मानवता का संदेश दिया जहां जाति धर्म और सम्प्रदाय, राष्ट्र की सीमाएं नहीं होतीं। बाबा साहेब के दीक्षा के लिए 57 वर्ष पूरे हो गये। उनका वह शब्द कि मैं अशोक की भांति भारत को बौद्धमय बनाऊँगा, वह सपना पूरा क्यों नहीं हुआ उसका क्या कारण है ? हम या आप कौन दोषी हैं जवाब तो देना ही पड़ेगा ?
आप नहीं देंगे, मैं नहीं दूंगा, तो कौन देगा ? हम भारत को बौद्धमय नहीं बना सकते, तो विश्व की शांति की बात करना ही व्यर्थ हो जाती है। हमें विश्व शान्ति बुद्ध वचनों में ही ढूंढ़ना पड़ेगा।
बौद्ध धर्म का शान्ति से अटूट सम्बन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। बौद्ध धर्म के 2557 वर्ष के इतिहास में जबकि यह सम्पूर्ण पृथ्वी के चतुर्थ भाग से अधिक प्रदेश में फैल गया, काफी श्रम साध्य, गंवेषण करने पर भी स्थायी और अल्प महत्व के कुछ एक उदाहरण ही मिल सकेंगे जबकि बल का प्रयोग किया गया हो। बौद्ध धर्म के इतिहास का एक भी पृष्ठ ऐसा नहीं है जो रक्त रंजित हो। बौद्ध धर्म के पास केवल एक ही तलवार है प्रज्ञा की तलवार और उसका एक ही शत्रु है अज्ञान। यह इतिहास का साक्ष्य है, जिसका विरोध नहीं किया जा सकता। बौद्ध धर्म और विश्व शान्ति का सम्बन्ध कार्य कारण का सम्बन्ध है। बौद्ध धर्म के प्रवेश से पूर्व तिब्बत, एशिया का सबसे बलवान सैनिक देश था। वर्मा, स्याम और कंबोडिया का पूर्वकालीन इतिहास बतलाता है कि यहां के निवासी अत्यन्त युद्ध प्रिय और हिंसात्मक स्वभाव के थे। मंगोल लोगों ने एक बार संपूर्ण ऐशिया को ही नहीं भारत, चीन, ईरान और अफगानिस्तान को भी रौंद डाला था और यूरोप के दरबाजों पर भी वे जा गरजे थे। जापान की सैनिक भावना को बौद्ध धर्म की पंद्रह शताब्दियां भी अभी पूरी तरह परास्त नहीं कर सकी हैं। संभवतः भारत और चीन के अपवादों को छोडकर एशिया के प्रायः अन्य सब राष्ट्रों के लोग मूलतः हिंसा प्रिय थे। बाद में उनमें जो शांति प्रियता आई वे बौद्ध धर्म के शांतिवादी उपदेशों के प्रभाव स्वरूप ही थी। इस प्रकार बौद्ध धर्म और शांति का संबंध आकस्मिक न होकर अनिवार्य है। विश्व शांति की स्थापना में बौद्ध धर्म अतीत में योगदान देने वाला साधन रहा है, इस समय है और आगे भी रहेगा।
अपने 2557 वर्ष के इतिहास में बौद्ध धर्म ने सांस्कृतिक कार्य किये हैं और इस बीच उसका जो राजनैतिक स्थान और प्रभाव रहा है उसकी झांकी हमारे लिए पूर्व और पश्चिम में बौद्ध धर्म के सांस्कृतिक निष्कर्षों को समझने में सहायक होगी।
भगवान बुद्ध ने धर्म की उपमा बेड़े से दी है, जिस प्रकार बेड़ा पार होने के लिए है, पकड़कर रखने के लिए नहीं, उस प्रकार बुद्ध ने धर्म का उपदेश दिया है। यह संसार सागर को पार करने के लिए है पकड़कर रखने के लिए नहीं। जिस प्रकार पार होने के बाद बेड़े की आवश्यकता नहीं रहती, उसे छोड़ देते हैं उसी प्रकार धर्म की स्थिति है। परन्तु जब हम तक समुद्र के इस पार हैं या उसे उतरने का प्रयत्न कर रहे हैं धर्म रूपी बेड़े की हमें अनिवार्य आवश्यकता है और किसी प्रकार छोड़ नहीं सकते।
बौद्ध धर्म का स्वरूप व्यवहारिक है, इस बात पर जोर हमें भगवान बुद्ध के उन शब्दों में मिलता है जो उन्होंने अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी से कहे थे। "गौतमी, जिन धर्मों के बारे में तू निश्चयपूर्वक जान सके कि ये निष्कामता के लिए है, कामनाओं की वृद्धि के लिए नहीं, विराग के लिए हैं राग के लिए नहीं, एकांत के लिए हैं, भीड़ के लिए नहीं, उद्यम के लिए हैं, प्रमोद के लिए नहीं, अच्छाई में प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए हैं, बुराई में प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए नहीं तो गौतमी ! उन ऐसे धर्मों के विषय में तू निश्चयपूर्वक जानना है कि यही धर्म है, यह विनय है, यही शास्ता का संदेश है।‘‘ यही बुद्ध का वचन है।
तथागत द्वारा अनुमति प्रदान करने पर सिंह सेनापति ने कहा-शास्ता ! मैं एक योद्धा हूं और राजा के नियमों को लागू करने और उसके लिए युद्ध लड़ने को नियुक्त किया गया हूँ। क्या असीम दयालुता और दुखियों के साथ सहानुभूति सिखाने वाले तथागत अपराधी को दंड देने की अनुमति देंगे ? और क्या तथागत यह कहेंगे कि कुटुंब, पत्नियों, बच्चों और संपत्ति की रक्षा के लिए युद्ध करना अनुचित है ? क्या तथागत आत्म समर्पण का सिद्धांत सिखायेंगे, जिससे मैं दुराचारी की मनमानी को सहूं और मेरे अधिकारों को बल प्रयोग से छीन लेने वाले के सम्मुख झुक जाऊँ ? क्या तथागत यह मानते हैं कि सभी संघर्ष, भले ही वे किसी उचित उद्देश्य के लिए हो निषिद्ध है ?
बुद्ध ने उत्तर दिया जो दण्ड के योग्य है, उसे दंड दिया जाना चाहिए और जो कृपा के पात्र है, उस पर कृपा की जानी चाहिए किन्तु इसके साथ ही तथागत किसी जीव को चोट न पहुंचाने और प्रेम, करूणा मैत्री से परिपूर्ण होने का उपदेश देते हैं। ये आदेश अंतर्विरोधी नहीं है, क्योंकि अपराध करने के लिए दण्ड का भागीदार मनुष्य न्यायाधीश के द्वेष के कारण नहीं, बल्कि अपने दुराचरण के कारण दण्ड पाता है। नियमों को निष्पादित करने वाला उसे जो क्षति पहुंचाता है उसका कारण स्वयं अपराधी के दुष्कर्म ही हैं। न्यायाधीश दण्ड देते समय अपने चित्त में कोई द्वेष न रखे और मृत्यु दण्ड पाने पर अपराधी यही सोचे यह उसके दुष्कर्मों का फल है जैसे ही यह जान लेगा कि दण्ड अन्तःकरण को निर्मल करेगा वैसे ही वह अपनी नियति पर दुख करने के बजाए प्रसन्न होगा।
और भगवान बुद्ध ने कहा ‘तथागत सिखाता है कि वह युद्ध जिसमें मनुष्य का वध करता है, शोचनीय है। किन्तु तथागत यह नहीं सिखाता कि शांति को बनाये रखने के सभी संभव प्रयासों में विफल रहने के बाद न्यायसंगत उद्दश्यों के लिए युद्ध करने वाले निन्दनीय हैं। किन्तु जो युद्ध का कारण पैदा करता है, वह अवश्य दोषी है।
‘तथागत आत्म का पूर्ण समर्पण करना अवश्य सिखाता है किन्तु वह बुरी शक्तियों के सम्मुख चाहे वे मनुष्य हो, देवता हो या प्राकृतिक तत्व, किसी भी वस्तु का समर्पण करने की शिक्षा नहीं देता। संघर्ष तो रहेगा, क्योंकि पूरा जीवन किसी न किसी तरह का संघर्ष ही है। किन्तु संघर्ष करने वाले को यह देखना होगा कि कहीं वह सत्य और सदाचार के विरूद्ध आत्म का संघर्ष तो नहीं कर रहा है।'
जो आत्म हित में संघर्ष करता है जिससे कि स्वयं शक्तिशाली, महान, धनी या विख्यात हो सके, वह कोई पुरस्कार नहीं पाता। किन्तु जो सत्य और सदाचार के पक्ष में संघर्ष करेगा, वह श्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त करेगा। क्योंकि उसकी पराजय भी एक विजय होगी।
किन्तु हे सिंह ! यदि वह स्वयं को उदार बनाता है और अपने हृदय की सारी घृणा को बुझाकर अपने पद, दिल शत्रु को उठाकर यह कहता है कि ‘आओ, अब समझौता कर हम बंधु बन जायें', तो वह ऐसी विजय प्राप्त करता है जो अस्थायी सफलता नहीं अपितु जिसके फल हमेशा विद्यमान रहेंगे।
‘हे सिंह ! एक सफल सेनापति महान है, किन्तु जिसने अपने को जीत लिया है, वह सर्वश्रेष्ठ विजेता है।'
वह विजय जो पीछे दुख छोड़ जाये उसे विजय नहीं कहते, विजय उसे कहते हैं कि कोई पराजित न हो। बुद्ध ने कहा भिखुओं संसार जल रहा है। कोई तृष्णा से, राग से, द्वेष से, सम्प्रदाय से, जाति-पाति से, बाप-बेटा से, पत्नी और पति से, मां-बेटा से, ब्राह्मण-ब्राह्मण से क्षत्रिय-क्षत्रिय से, वैश्य-वैश्य से, एक राजा दूसरे राजा से सब युद्धरत हैं, बैर-बैर से शान्त नहीं होता, बैर शान्ति से शान्त होता है।2
बौद्ध धर्म वसंत के उस मलयानिल के समान था जिसने एशिया के उपवन को एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक अपनी संस्कृति के झोंकों से सुरभित और पुष्पित कर दिया। ऐशिया में संस्कृति अपने समग्र रूप में बौद्ध संस्कृति ही है।
बौद्ध धर्म मन से शांति का संचार करके उसका बाहर प्रसारण करना चाहता है। इस प्रकार उसका अन्दर से शुरू होकर बाहर फैलता है। राजनैतिक स्तर पर बौद्ध धर्म किसी पक्ष में नहीं पड़ता है। उसके पास मैत्री का ही सबसे बड़ा बल है, जो तटस्थ है और सम्पूर्ण विश्व को अपने में समेटे हुए है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों से कहा कि उन्हें उनके काम को स्वीकार करना चाहिए, परन्तु उसके जीवन को आदर्श नहीं मानना चाहिए।
स्वतंत्रता, बन्धुत्व, समता, विकास, शिक्षा और अधिकार एवं राष्ट्रीयता ब्राह्मणवाद की तंग चार दीवारों के अन्दर बन्द नहीं किया जा सकता। कमल कीचड़ में पैदा होता है। कमल से प्रेम करो, कीचड़ से नहीं। शरहपाद (सहजियान) द्वारा की गई आलोचना का स्मरण हो आता है। उदाहरण देखिए-
निर्लज्ज लोग सम्पन्न बन जाते हैं। वाकपटु लोग उच्च अधिकारी बन जाते हैं। छोटे-मोटे चोरों को कारावास में डाल दिया जाता है, किन्तु बड़े डाकू सामंत स्वामी बन जाते हैं और इन्हीं सामंतों के द्वार पर आपको-धर्म परायण विद्वान' नजर आयेंगे।
जिन लोगों को साधारण जन ज्ञानी पुरुष कहते हैं क्या वे इन बड़े चोरों के लिए कर उगाहने वाले लोग नहीं बन जाते ? और जिन्हें ऋषि मुनि समझा जाता है क्या वे इन बड़े चोरों के हितो के रक्षक नहीं सिद्ध होते ? यहां तो एक व्यक्ति (अपनी करधनी के लिए) एक बकसुआ चुराता है तो उसे मृत्युदण्ड दे दिया जाता है और उधर दूसरा व्यक्ति जो पूरा राज्य ही चुरा लेता है वह उसका राजा बन जाता है और ऐसे ही राजाओं के द्वार पर हम दया और सदाचार के उपदेश सुनते हैं। क्या यह दया, सदाचार, प्रज्ञा, बुद्धिमत्ता और ऋषि-मुनियों जैसे आचरण की चोरी नहीं है।
बुद्ध उस श्रमण संस्कृति में पैदा हुए जो हमें 6000 पूर्व के अवशेष रोरूक (मोहनजोदड़ो से प्राप्त अवशेषों से प्राप्त हुए, यहां की नारियों ने कृषि की सर्वप्रथम खोज की और पुरुषों ने धातु विज्ञान और धातु से हथियारों का अविष्कार किया, जिन्होंने नदियों के पुश्ते बांधने और दीवारें बनाने की विधि निकाली। जो लोग शिल्पी थे अर्थात् तांबे की वस्तुएं बनाते थे। जिनको 1500 बी.सी में आर्यों ने परास्त किया और संस्कृति का विनाश किया, आज उनकी पहचान दो रूपों में की जा सकती है-
(1) पुरोहित वर्ग (कर्मकाण्डी) परजीवी वर्ग जो श्रम से दूर भागने वाले (2) कुछ उच्च उठा हुआ वर्ग यानी मानसिक गुलाम और दूसरे आदिवासी जनजाति उसके अवशेष हैं।3
शारीरिक श्रम और शिल्प विद्या, संगीतज्ञ, नाविक, तैराक, तलवार, घंटियों के स्तम्भ, स्तुप, तीर आदि बनाने वाले, रथकार, जानवरों को पालतू बनाने वाले तथा गणितज्ञों के संबंध में हैं। यह रोरूक समाज के विशिष्ट बने रहे। इसी में हमें उनकी वैज्ञानिक विश्व दृष्टि का संकेत मिलता है। श्रमरत मनुष्य की चेतना इस जगत को ठोस भौतिक पदार्थों पर केन्द्रित रहती है, और बुद्ध परलोक और अन्य भाववादी कल्पनाओं में नहीं उलझती। जब सामाजिक विकास की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगता है, इसे पतन और हीनता का परिचायक समझा जाता है तो मानव चेतना अर्थात् शासक की चेतना अपने श्रमरत होने की सीधी जिम्मेदारी से दूर हटा लेती है। यह शासक वर्ग स्वयं को श्रम द्वारा ठोस भौतिक आवश्यकताएं जुटाने के कर्तव्य से मुक्त कर लेता है और अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने लगाता है। उसके अन्दर यह गर्व आ जाता है कि वह इस वाह्य जगत का श्रेष्ठा है। यह भाग्यवादी दृष्टिकोण है, अब चेतना के स्थान पर ईश्वर या आत्मा अथवा जीव शब्द का प्रयोग होने लगता है तो यह आध्यात्मबाद या ब्राह्मणवाद कहलाता है।4
हिन्दू धर्म के लोग प्रचलित और रहस्यमय, दोनों पक्ष व्यवहारिक दृष्टि से मुख्यतः तांत्रिक हैं। पुरातत्ववेत्ताओं का कहना है कि यही आर्य लोग थे, जो तंत्रवाद को भारत में लाये।
हिन्दू रूपी झील में ब्राह्मणवादी मगरमच्छ आनन्द के झरोखे ले रहा था। जो मरने के हेतु बाबा साहेब अम्बेडकर ने झील में आनेवाले श्रोतों के बांध लगाये थे, वह बांध जो दलित नेताओं ने तटबांध को तोड़ा और उसे जीवन दान दे दिया। अब पुनः मगरमच्छ दलितों को जिन्दा निगल रहा, इसे कैसे बचाया जाये ? यह प्रश्न आपके सामने इस मगरमच्छ को मारने के क्या उपाय हैं, भूसी के ढेर से अनाज के दाने को अलग करना।
एक इतिहास के काम का वर्णन यह मुख्य रूप से श्रमण सभ्यता और वैदिक सभ्यता की भिड़न्त है। इसे समझे विना विश्व शांति की बात नहीं करते और सम्भव भी नहीं है। सैकड़ों वर्षों से इस्लाम ईसाईयत के बीच गहरा अन्तर्विरोध है और अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए सैकड़ों वर्षों से इन धर्मों के अनुयाईयों के बीच क्रूसेड और जेहाद लड़े जाते हैं। इसी तरह वैदिक आर्यों का नास्तिक इसी का प्रति रूप में देखना होगा। क्योंकि कोई भाड़े का ट्टुओं का धर्मरक्षक बलिदानियों के रूप में पेश करते है। यह बात सिर्फ ईसाईयों और मुसलमानों पर ही लागू नहीं होती बल्कि उदार और सहिष्णु समझे जाने वाले हिन्दू सनातनियों पर भी फिट बैठती है।
कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो प्रवचन दिया था। उसका एक महत्वपूर्ण संदेश यही था कि मरोगे तो सीधे स्वर्ग जाओगे और यदि बचे रहे तो इस धरा पर स्वर्ग का सुख भोगोगे। खालसा पंथ में भी शस्त्र धारण करने की परम्परा धर्म रक्षक की भावना के कारण प्रतिष्ठित हुई। पहले बात गीता की। अगर उसी सूत्र बात को गांठ बांधा जाये तो ‘स्वधर्मोः निधने श्रेयः परधर्मोः भयबद्धः' तब धार्मिक कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक हठ धार्मिकता के आक्षेप से हिन्दुत्व को कितनी देर तक बचाया जा सकता है आप चाहे कितनी ही कुशल कसरती कलाबाजी करें वैचारिक शरीर को तोड़े-मरोड़ें धर्म को मजहब नहीं जाति धर्म, देशकाल, सापेक्ष आपद धर्म के रूप में परिभाषित करें- स्वः और पर की भिड़ंत को टाल नहीं सकते। ऐसे ही अगर मैतियाना साहब के दृष्य के बारे में ठण्डे दिमाग से सोचें तो धार्मिक वैमनस्य और इससे पैदा होने वाली हिंसक मुठ भेड़ों के ऐतिहासिक यथार्थ को झुठला नहीं सकते।
- डॉ मनुप्रताप ई-मेल: dr.manu_pratap@rediffmail.com अध्यक्ष - हिंदी विभाग, गांधी स्मारक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सुरजननगर-जयनगर, मुरादाबाद (उ. प्र)
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सन्दर्भ सूचीः- 1. युग पुरुष डॉ. अम्बेडकर, स्मारिका, वर्ष 2011, पृ.22 2. जन सम्मान, सितम्बर 2012, पृ.56 3. बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की सांस्कृतिक देन: प्रो0 अगने लाल, पृ. 263 4. जन सम्मान अक्टूबर 2011 पृ. 28
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