अमृत की खेती | दैनिक कथा

रचनाकार: भारत-दर्शन संकलन

एक बार भगवान बुद्ध भिक्षा के लिए एक किसान के यहां पहुंचे। तथागत को भिक्षा के लिए खड़ा देख कर किसान उपेक्षा से बोला, 'श्रमण! मैं हल जोतता हूं, बीज बोता हूं और तब खाता हूं। तुम्हें भी हल जोतना और बीज बोना चाहिए और तब खाना चाहिए।' बुद्ध ने कहा, 'महाराज! मैं भी खेती ही करता हूं।' इस पर उस किसान ने जिज्ञासा की, "गौतम! मैं न कहीं आपका जुआ देखता हूं, न हल, न बैल और न ही पानी देखता हूं। तब आप कैसे कहते हैं कि आप भी खेती ही करते हैं? आप अपनी कृषि के संबंध में समझाएं।"

बुद्ध ने कहा, 'हे मित्र! मेरे पास श्रद्धा का बीज, तपस्या रूपी वर्षा, प्रज्ञा रूपी जोत और हल हैं। पाप-भीरुता का डंड है, विचार रूपी रस्सी है। स्मृति, चित्त की जागरूकता रूपी हल की फाल और पानी है। मैं वचन और कर्म में संयत रहता हूं। मैं अपनी इस खेती को बेकार घास से मुक्त रखता हूं और आनंद की फसल काट लेने तक प्रयत्नशील रहने वाला हूं। अप्रमाद मेरा बैल है, जो बाधाएं देख कर भी पीछे मुंह नहीं मोड़ता है। वह मुझे सीधा शांति धाम तक ले जाता है। इस प्रकार मैं अमृत की खेती करता हूं।'

[भारत-दर्शन संकलन]

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