देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

बंग महिला राजेन्द्रबाला घोष

बंग महिला श्रीमती राजेन्द्र बाला घोष का जन्म 1882 में वाराणसी में हुआ था। आपके पिता का नाम रामप्रसन्न घोष था। वे एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार से संबंध रखते थे। आपके पूर्वज बंगाल से आकर वाराणसी में बस गए थे।

आपकी माताजी का नाम नीदरवासिनी घोष था। आप एक साहित्यिक रुचि वाली महिला थीं।

बंग महिला को बचपन में 'रानी' और 'चारुबाला' के नाम से पुकारा जाता था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अपनी माताजी के संरक्षण में हुई।

आपका विवाह पूर्ण चन्द्र्देव के साथ हुआ था।

1904 से 1917 तक बंग महिला की रचनाएँ विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसी बीच अपने दो बच्चों के असमय निधन और 1916 में पति के देहांत से वे बुरी तरह टूट गईं। इन सदमों के कारण आपकी वाणी मौन हो गई और सृजन भी बंद हो गया।

24 फरवरी 1949 को मिरजापुर में आपका देहांत हो गया।

हिन्दी कहानीकारों में बंग महिला का नाम आदर से लिया जाता है। मूलतः हिन्दी भाषी न होते हुए भी आपको हिन्दी से अनन्य अनुराग था। आप बंगला में 'प्रवासिनी' के नाम से लिखती थी। 

बंग महिला आरम्भिक दौर की महिला कथाकारों में प्रमुख नाम है। इनकी प्रमुख कहानी दुलाई वाली है जो 1907 में 'सरस्वती पत्रिका' में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी  की पहली कहानी कौनसी है, इस विषय में मतभेद है लेकिन पहली कही जाने वाली कहानियों में से एक बंग महिला की 'दुलाई वाली' भी है।  

 

कृतियाँ: 

कहानियाँ:
दुलाई वाली - 1907 में 'सरस्वती' में प्रकाशित।
भाई-बहन -   1908 में 'बाल प्रभाकर' में प्रकाशित।
हृदय परीक्षा - 1915 में ‘सरस्यती' में प्रकाशित। 

निबंध: चन्द्रदेव से मेरी बातें। 

अनुदित साहित्य: 

कहानियों, निबंधों व कविताओं के अतिरिक्त बंग महिला ने बँगला साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया। आपकी अनेक अनुदित कहानियां व आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए व यह सामग्री 1911 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'कुसुम संग्रह' में संकलित हैं। 

पुस्तकें:  कुसुम संग्रह, काशी नगरी प्रचारिणी सभा, 1911 

- रोहित कुमार 'हैप्पी' 

 

 

संदर्भ:

- सरस्वती, 1907
- सरस्वती, 1911
- कुसुम संग्रह, काशी नगरी प्रचारिणी सभा, 1911

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चन्द्रदेव से मेरी बातें | निबंध

बंग महिला (राजेन्द्रबाला घोष) का यह निबंध 1904 में सरस्वती में प्रकाशित हुआ था।  बाद में कई पत्र-पत्रिकाओं ने इसे 'कहानी' के रूप में प्रस्तुत किया है लेकिन यह एक रोचक निबंध है।   

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दुलाई वाली | कहानी

काशी जी के दशाश्‍वमेध घाट पर स्‍नान करके एक मनुष्‍य बड़ी व्‍यग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ आ रहा था। एक हाथ में एक मैली-सी तौलिया में लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियाँ और सुँघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्‍यारह बजे थे, गोदौलिया की बायीं तरफ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर, एक टूटे-से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खण्‍ड में बहुत अँधेरा था; पर उपर की जगह मनुष्‍य के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्‍य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाँ एक कोठरी में उसने हाथ की चीजें रख दीं। और, 'सीता! सीता!' कहकर पुकारने लगा।

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