दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar साहित्य Hindi Literature Collections

कुल रचनाएँ: 14

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हो गई है पीर पर्वत-सी | दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिएइस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगीशर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव मेंहाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहींमेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
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पथ की बाधाओं के आगे | गीत

पथ की बाधाओं के आगे घुटने टेक दिएअभी तो आधा पथ चले! तुम्हें नाव से कहीं अधिक था बाहों पर विश्वास, क्यों जल के बुलबुले देखकर गति हो गई उदास, ज्वार मिलेंगे बड़े भंयकर कुछ आगे चलकर--अभी तो तट के तले तले! सीमाओं से बाँध नहीं पाता कोई मन को, सभी दिशाओं में मुड़ना पड़ता है जीवन को, हो सकता है रेखाओं पर...

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इस नदी की धार में | दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो हैनाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तोंइस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सीआदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दीयह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है...

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मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ | दुष्यंत कुमार

मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ वो गज़ल आपको सुनाता हूँ।
एक जंगल है तेरी आँखों में मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुजरती हैमैं किसी पुल -सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ एतराज़ होता हैमैं अगर रोशनी में आता हूँ
एक बाजू उखड़ गया जब सेऔर ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश मेंआज कितने करी...

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आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख | ग़ज़ल

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देखघर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआआज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरहयह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझेकट चुके जो हाथ, उन हाथों म...

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ये सारा जिस्म झुककर

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा मैं सज़दे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते वो सब के सब परेशाँ हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है ...

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तुम्हारे पाँव के नीचे----

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बे-पनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं
तेरी ज़बान है झूठी जम्हूरियत की तरह तू इक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जाएँ अदीब यूँ तो सियासी हैं पर कम...

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ये जो शहतीर है | ग़ज़ल

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारोअब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो
दर्द-ए-दिल वक़्त को पैग़ाम भी पहुँचाएगाइस कबूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरेआज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगेआज संदूक़ से वो ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओ...

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कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हम को क़ाएदे क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है जिस में तह-ख़ानों से तह-ख़ाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने इस तरफ़ ...

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कहाँ तो तय था चराग़ाँ

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लियेकहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती हैचलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सहीकोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये
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दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें - इस पृष्ठ पर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें संकलित की गई हैं। हमारा प्रयास है कि दुष्यंत कुमार की सभी उपलब्ध ग़ज़लें यहाँ सम्मिलित हों।
 

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एक आशीर्वाद | कविता

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।भावना की गोद से उतर करजल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लियेरूठना मचलना सीखें।हँसेंमुस्कुराऐंगाऐं।हर दीये की रोशनी देखकर ललचायेंउँगली जलायें।अपने पाँव पर खड़े हों।जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
- दुष्यंत कुमार
 

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काश! मैं भगवान होता

काश! मैं भगवान होतातब न पैसे के लिए यों हाथ फैलाता भिखारीतब न लेकर कोर मुख सेश्वान के खाता भिखारीतब न यों परिवीत चिथड़ों मेंशिशिर से कंपकंपातातब न मानव दीनता औ'याचना पर थूक जातातब न धन के गर्व में यों सूझती मस्ती किसी कोतब ना अस्मत निर्धनों कीसूझती सस्ती किसी कोतब न अस्मत निर्धनों की सूझती सस्ती...

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आघात

चौधरी भगवत सहाय उस इलाके के सबसे बड़े रईसों में समझे जाते थे। समीप के गाँवों में वे बड़ी आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। अपने असामियों से वे बड़ी प्रसन्नतापूर्वक बातें करते थे। ये बड़े योग्य पुरुष। यही कारण था कि थाने में तथा कचहरियों में भी वे सम्मान के पात्र समझे जाते थे। उनके पहनावे में तथा लखन...

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दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar का जीवन परिचय