जहाँ न हित-उपदेश कुछ, सो कैसा साहित्य?
हो प्रकाश से रहित तो, कौन कहे आदित्य?
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कविताएं
इस श्रेणी के अंतर्गत
राखी
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी
सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी
बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी
सलोनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी
न पहुँचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी
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जिंदगी की चादर
जिंदगी को जिया मैंने
इतना चौकस होकर
जैसे कि नींद में भी रहती है सजग
चढ़ती उम्र की लड़की
कि कहीं उसके पैरों से
चादर न उघड़ जाए।
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तलाश जारी है...
स्वदेस में बिहारी हूँ, परदेस में बाहरी हूँ
जाति, धर्म, परंपरा के बोझ तले दबी एक बेचारी हूँ।
रंग-रूप,नैन-नक्श, बोल-चाल, रहन-सहन
सब प्रभावित, कुछ भी मौलिक नहीं।
एक आत्मा है, पर वह भौतिक नहीं।
जो न था मेरा, जो न हो मेरा
फिर किस बहस में उलझें सब
कि ये है मेरा और ये तेरा।
जब तू कौन है ये नहीं जानता,
खुद को ही नहीं पहचानता,
कहां से आया और कहां चला जाएगा
साथ कुछ भी नहीं, सब पीछे छूट जाएगा।
जो छूट जाएगा, तेरे काम नहीं आएगा
फिर वो क्या है जो तेरी पहचान है,
जिसमें अटकी तेरी जान है।
वह देह से परे, भावनाओं का एक जाल है
जिससे रहित तेरी काया एक कंकाल है।
पर क्या तू कभी इनका मोल कर पाया
टुकड़ों में बंटी अपनी पहचान को समेट पाया
तू कौन है ये अगर जान ले
ख़ुद को अगर पहचान ले
तो एक मुलाकात मेरी भी करवाना
क्योंकि…
खुद को पहचानने की
मेरी तलाश अब भी जारी है…
तलाश जारी है…
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