पूर्णिमा वर्मन से बातचीत

रचनाकार: रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

इन्टरनेट पर हिंदी की वैब दुनिया की बात करें तो पूर्णिमा वर्मन एक सुपरिचित नाम  हैं और सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तियों में से एक हैं। वैब के आरंभिक दौर में हिंदी को प्रचारित-प्रसारित करने में आपकी अहम् भूमिका रही है। आप दशकों तक शारजहा में रही हैं और वहीं आपने अपनी वैब यात्रा आरम्भ की थी।  वर्तमान में आप लखनऊ (भारत) में हैं।  

आज हम पूर्णिमा जी से साक्षात्कार करके आपको हिंदी वैब की स्मृति-यात्रा पर लिए चलते हैं।  

'यह तथ्य कि हिंदी वेब साहित्यिक-पत्रकारिता विदेश से आरंभ हुई और इसको आगे बढ़ाने वाली मुख्य पत्र-पत्रिकाएं भी विदेश की धरती से ही वेब पर आईं, कई शोधार्थियों को हतप्रभ कर सकता है। इंटरनेट पर पहले तीनों प्रकाशन (भारत-दर्शन, बोलोजी, अभिव्यक्ति) विदेश से थे और तीनों का प्रकाशन/सम्पादन भी प्रवासी भारतीय कर रहे थे।‘ इसके मुख्य कारण आप क्या समझती हैं और आप ‘अभिव्यक्ति' के आरंभ करने के कारण व आवश्यकता के बारे में कुछ बताएं?


पूर्णिमा वर्मन-- मुख्य कारण तो यही थे,  कि-

भारत में उस समय इंटरनेट की गति, सुविधाएँ व जानकारी नहीं थी। मेरी पत्रिका के पाठक ही भारत में गिने चुने थे। 

जो लोग कंप्यूटर पर काम कर रहे थे, वे सब कंप्यूटर के विद्यार्थी थे या इंजीनियर थे। हिंदी में कुछ साहित्यिक काम करने में समर्थ नहीं थे। 
तकनीकी काम हिंदी में करना और भी मुश्किल था क्योंकि तकनीकी पढ़ाई तो अभी तक भारत में अंग्रेजी में ही होती है। (आज भी कठिन ही है)

कंप्यूटर बहुत महँगे थे और हिंदी मध्यवर्गीय लोगों की भाषा है अतः मध्यवर्ग के पास उसे खरीदने की सामर्थ्य नहीं थी।

वे कहती हैं, "मेरे पास समय था। मैं भारत में पत्रकार के रूप में काम कर चुकी थी।  मैंने वेब डिजायनिंग का एक कोर्स किया था।"

क्या पठन-पाठन में रुचि रखने वाले आप जैसे लोगों की  साहित्यिक तुष्टि नहीं हो रही थी?

मेरी साहित्य में रुचि थी। पत्रिका शुरू कर रही हूँ, ऐसा नहीं सोचा था बस यही इच्छा थी कि जो कुछ थोड़ा-बहुत मेरे पास है उसे वेब पर डाल दूँ ताकि मेरे जैसे और लोग जो इंटरनेट पर हिंदी खोज रहे हैं, उन्हें कुछ न कुछ मिल जाए। लेकिन पाठकों ने इतना उत्साहित किया। --और विदेशी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों ने इतना महत्व दिया कि वह एक पत्रिका बन गयी।


विदेशों में पठनीय सामग्री का अभाव था - यह भी कारण था?

बिलकुल, यह कारण भी था।  भारत की सभी उड़ाने किताबों के लिये 200 रुपये प्रति किलो का भुगतान लेती थीं। जो किताब के मूल्य से भी अधिक होता था। कितनी किताबें साथ ले जा सकते थे?

फिर पूर्णिमा जी उस समय का एक एयरपोर्ट  का क़िस्सा सुनती हैं, "एक बार एक एअरपोर्ट अधिकारी ने पूछा भी था--आप इतनी किताबें क्यों ले जाती हैं?क्या वहाँ किताबें नहीं मिलतीं? मैंने कहा मिलती तो हैं लेकिन हिंदी की किताबें नहीं मिलतीं।  तो बोला- इससे अच्छा तो यह है कि आप अंग्रेजी की किताबें पढ़ें। 

एक बार रूक कर अपनी बात को आगे बढ़ाती हुई कहती हैं, "यानि भारत की स्थिति यह है कि पैसे बच जाएँ बस...और मैं तो किसी अंग्रेजी बोलने वाले देश में रहती भी नहीं थी।"

उस समय पठन-पाठन में रुचि रखने वाले विदेश में बसे लोगों के लिए हिंदी उपलब्धता की उपलब्धता एक गंभीर समस्या थी।  विदेश में बसे जिन लोगों का हिंदी भाषा और साहित्य से लगाव था, वे अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत थे।  पूर्णिमा जी को भी यही समस्या आ रही थी, वे बीते दिन यद् करके कहती हैं, " --तो लगा कि जो मैं भुगत रही हूँ कोई और न भुगते।" 

"इस तरह के सवाल-जवाब से अपनी भाषा से प्रेम करने वालों को काफी दुख पहुँच सकता है। मेरा मतलब है, एअरपोर्ट अधिकारियों के ऐसे सवालों से
लेकिन यथार्थ से परिचित होना भी तो आवश्यक है?"

क्या उस समय से आज तक टेक्नोलॉजी में आये परिवर्तन आपको प्रभावित कर रहे हैं? पत्रिका की ऑनलाइन उपस्थिति को लेकर कोई विशेष अनुभव?

"हाँ, काफी परिवर्तन हुए हैं और इन परिवर्तनों ने हिंदी को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। अपनी पत्रिका की ऑनलाइन उपस्थिति से सभी अनुभव अच्छे रहे हैं। दुनिया में ढेरों लोगों से पहचान हुई। अच्छे दोस्त मिले। अगर आज मेरा वेब साइट न होता तो शायद हम आप ऐसे बात भी न कर रहे होते। विदेशों में साहित्य सृजन करने वाले हिंदी लेखकों को भारत में पहचान मिली।"

आज परिस्थितियां। बदल चुकी हैं, इनकी चर्चा करते हुए कहती हैं, "उन दिनों वेब पर बहुत मधुरता थी। सब एक दूसरे को सिखाते थे। उत्साहवर्धन करते थे। आज की तरह टाँग खीचना गाली-गलौज करना नहीं होता था।"

आजकल और क्या कर रही हैं?

यहाँ लखनऊ में हमने एक सास्कृतिक संस्थान बनाया है। उसमें एक थियेटर, एक पुस्तकालय, एक छोटे बच्चों का स्कूल, एक डायनिंग स्पेस, एक संग्रहालय, एक सेमीनार कक्ष और 8 अतिथि कक्ष होंगे। एक ओपेन एअर थियेटर भी है। सब कुछ छोटा छोटा ही है। लेकिन शौकीन लोगों के लिये लाभदायक रहेगा।

इसका एक फेसबुक पृष्ठ है। इसके अभी 176 अभिव्यक्ति विश्वम (अपना लखनऊ अड्डा) - इस सबकी जानकारी आप फेसबुक पर पा सकते हैं: 

https://www.facebook.com/groups/abhivyaktivishwam/
अभिव्यक्ति विश्वम (अपना लखनऊ अड्डा)

अभिव्यक्ति विश्वम के बारे में कुछ और बताइए?

आप अभिव्यक्ति विश्वम फेसबुक पेज देखियेगा हमने कुछ काम शुरू कर दिये हैं और कुछ हिस्से अभी निर्माणाधीन हैं

हाँ हमने इसे 2017 से शुरू कर दिया है और अब मैं अधिकतर समय यहीं लखनऊ में रहती हूँ, संस्थान के अंदर। हाँ इसमें एक आर्ट गैलरी भी है। संगीत और नृत्य के स्टूडियो हैं।