हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

मैं दिल्ली हूँ | दो

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

जब चाहा मैंने तूफ़ानों के, अभिमानों को कुचल दिया ।
हँसकर मुरझाई कलियों को, मैंने उपवन में बदल दिया ।।

मुझ पर कितने संकट आए, आए सब रोकर चले गए ।
युद्धों के बरसाती बादल, मेरे पग धोकर चले गए ।।

कब मेरी नींव रखी किसने, यह तो मुझको भी याद नहीं ।
पूँछू किससे; नाना-नानी, मेरा कोई आबाद नहीं ।।

इतिहास बताएगा कैसे, वह मेरा नन्हा भाई है ।
उसको इन्सानों की भाषा तक, मैंने स्वयं सिखाई है ।।

हाँ, ग्रन्थ महाभारत थोड़ा, बचपन का हाल बताता है ।
मेरे बचपन का इन्द्रप्रस्थ ही, नाम बताया जाता है ।।

कहते हैं मुझे पांडवों ने ही, पहली बार बसाया था ।
और उन्होंने इन्द्रपुरी से सुन्दर मुझे सजाया था ।।

मेरी सुन्दरता के आगे सब, दुनिया पानी भरती थी ।
सुनते हैं देश विदेशो पर, तब भी मैं शासन करती थी ।।

किन्तु महाभारत से जो, हर ओर तबाही आई थी ।
वह शायद मेरे घर में भी, कोई वीरानी लाई थी ।।

बस उससे आगे सदियों तक, मेरा इतिहास नहीं मिलता ।
मैं कितनी बार बसी-उजड़ी, इसका कुछ पता नहीं चलता ।।

ईसा से सात सदी पीछे, फिर बन्द कहानी शुरू हुई ।
आठवीं सदी के आते ही, भरपूर जवानी शुरू हुई ।।

सचमुच तो राजा अनंगपाल ने फिरसे मुझे बसाया था ।
मेरी शोभा के आगे तब, नन्दन-वन भी शरमाया था ।।

मेरे पाँवों को यमुना ने, आंखों से मल-मल धोया था ।
बादल ने मेरे होंठों को आ-आकर स्वयं भिगोया था ।।

- रामावतार त्यागी

 

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