यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।

मैं दिल्ली हूँ | एक

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं ।
अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं ॥

मैंने बलशाली राजाओं के, ताज उतरते देखे हैं ।
मैंने जीवन की गलियों से तूफ़ान गुज़रते देखे हैं ॥

देखा है; कितनी बार जनम के, हाथों मरघट हार गया ।
देखा है; कितनी बार पसीना, मानव का बेकार गया ॥

मैंने उठते-गिरते देखीं, सोने-चाँदी की मीनारें ।
मैंने हँसते-रोते देखीं, महलों की ऊँची दीवारें ॥

गर्मी का ताप सहा मैंने, झेला अनगिनत बरसातों को ।
मैंने गाते-गाते काटा जाड़े की ठंडी रातों को ॥

पतझर से मेरा चमन न जाने, कितनी बार गया लूटा ।
पर मैं ऐसी पटरानी हूँ, मुझसे सिंगार नहीं रूठा ॥

आँखें खोली; देखा मैंने, मेरे खंडहर जगमगा गए ।
हर बार लुटेरे आ-आकर, मेरी क़िस्मत को जगा गए ॥

मुझको सौ बार उजाड़ा है, सौ बार बसाया है मुझको ।
अक्सर भूचालों ने आकर, हर बार सजाया है मुझको ॥

यह हुआ कि वर्षों तक मेरी, हर रात रही काली-काली ।
यह हुआ कि मेरे आँगन में, बरसी जी भर कर उजियाली ।।

वर्षों मेरे चौराहों पर, घूमा है ज़ालिम सन्नाटा ।
मुझको सौभाग्य मिला मैंने, दुनिया भर को कंचन बाँटा ।।

 

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश