एक लंबी मेज दूसरी लंबी मेज तीसरी लंबी मेज दीवारों से सटी पारदर्शी शीशेवाली अलमारियाँ मेजों के दोनों ओर बैठे हैं व्यक्ति पुरुष-स्त्रियाँ युवक-युवतियाँ बूढ़े-बूढ़ियाँ सब प्रसन्न हैं
कम-से-कम अभिनय उनका इंगित करता है यही पर मैं चिंतित हूँ देखकर उस वृद्धा को जो कभी प्रतिमा भी लावण्य की जो कभी तड़प थी पूर्व राग की क्या ये सब युवतियाँ जो जीवन उँड़ेल रही हैं युवक हृदयों में क्या ये सब भी बूढ़ी हो जाएँगी देखता हूँ पारदर्शी शीशे में इस इंद्रजाल को सोचता हूँ- सत्य सचमुच कड़वा होता है।
- विष्णु प्रभाकर |