किसी के दुख में रो उट्ठूं कुछ ऐसी तर्जुमानी दे मुझे सपने न दे बेशक, मेरी आंखों को पानी दे
मुझे तो चिलचिलाती धूप में चलने की आदत है मेरे भगवान, मेरे शहर को शामें सुहानी दे
ये रद्दी बीनते बच्चे जो गुम कर आए हैं सपने किसी दिन के लिए तू इनको परियों की कहानी दे
ख़ुदाया, जी रहा हूं यूं तो मैं तेरे ज़माने में चराग़ों की तरह मिट जाऊं ऐसी ज़िन्दगानी दे
जिसे हम ओढ़ के करते थे अकसर प्यार की बातें तू सबकुछ छीन ले मेरा वही चादर पुरानी दे
मेरे भगवान, तुझसे मांगना अच्छा नहीं लगता अगर तू दे सके तो ख़ुश्क दरिया को रवानी दे
यहां इंसान कम, ख़रीदार आते हैं नज़र ज्यादा ये मैंने कब कहा था मुझको ऐसी राजधानी दे।
-ज्ञानप्रकाश विवेक
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