किनारा वह हमसे किये जा रहे हैं। दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं।
जुड़े थे सुहागिन के मोती के दाने, वही सूत तोड़े लिये जा रहे हैं।
छिपी चोट की बात पूछी तो बोले निराशा के डोरे सिये जा रहे हैं।
ज़माने की रफ़्तार में कैसे तूफां, मरे जा रहे हैं, जिये जा रहे हैं।
खुला भेद, विजयी कहाये हुए जो, लहू दूसरे का पिये जा रहे हैं।
- निराला [हंस मासिक, बनारस, दिसंबर, 1945]
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