गूंजी थी मेरी गलियों में, भोले बचपन की किलकारी । छूटी थी मेरी गलियों में, चंचल यौवन की पिचकारी ॥
सावन मेरे गलियारों में, झूले पर बैठा आता था । फागुन मेरे बागीचों में, मदमस्त जवानी लाता था ॥
सूरज की हर मासूम किरण, आकर मुझको दुलराती थी । आती थी रात सितारों के, गज़रे मुझको पहनाती थी ॥
खुशियाँ हर ओर विचरती थीं, सुख भीतर था सुख; बाहर था । मेरे घर छोटे और बड़े, सबका सम्मान बराबर था ॥
मेरा स्वामी था धर्म, पढ़ाया था मुझको सच्चाई ने । मुझको भाषा सिखलाई थी, 'दिल' जैसे प्यारे भाई ने ॥
संगीत मुझे दुलराता था, गीतों ने मुझे जवानी दी । कविता ने मुझको न्याय, कला ने जीवन भरी निशानी दी ॥
संघर्षों की रामायण हूँ, उस 'कीली' की हम जोली में । जो लोहे वाली लाट गढ़ी है, अब तक भी महरौली में ॥
यह सही कि इसको मुझे, बसाने वाले ने गढ़वाया था । गढ़वाकर कीली मुझे अमर, रखने का बीड़ा खाया था ॥
- रामावतार त्यागी
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