हुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर,
 तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर ।
 संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।
अनमाँगे जो मुझे दिया है
 जोत गगन तन प्राण हिया है
चीन्हे किए अचीन्हे कितने
घर कितने ही घर को;
 किया दूर को निकट, बंधु,
 अपने भाई-सा पर को।
 
 छोड़ निवास पुराना जब मैं जाता
 जानें क्या हो, यही सोच घबराता,
 किन्तु पुरातन तुम हो नित नूतन में
 यही सत्य मैं जाता बिसर-बिसर जो ।
 किया दूर को निकट, बंधु,
 अपने भाई-सा पर को।
 
 जीवन और मरण में निखिल भुवन में
 जब भी, जहां कहीं भी अपना लोगे,
 जनम-जनम के ऐ जाने-पहचाने,
 तुम्ही मुझे सबसे परिचित कर दोगे ।
 
 तुम्हें जान लूं तो न रहे कोई पर,
 मना न कोई और नहीं कोई डर-
 तुम सबके सम्मिलित रूप में जागे
 मुझे तुम्हारा दरस सदा प्रभुवर हो ।
 किया दूर को निकट, बंधु,
 अपने भाई-सा पर को ।
साभार - गीतांजलि, भारती भाषा प्रकाशन (1979 संस्करण), दिल्ली
अनुवादक - हंसकुमार तिवारी
Geetanjli by Rabindranath Tagore