अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
श्याम सुंदर पर दोहे (काव्य)    Print this  
Author:बिहारी | Bihari

मेरी भवबाधा हरो, राधा नागरि सोय। 
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥ 

सरलार्थ :  मेरी सांसारिक बाधा को, जन्म-मरण की आपदाओं को, वे राधा नागरी दूर करें, जिनके शरीर की (पीत) छाहं पड़ने से श्यामसुन्दर की द्युति हरी हो जाती है।

मोर मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल। 
यहि बानिक मो मन बसो, सदा बिहारीलाल॥

सरलार्थ : सिर पर मोर-पंखों का मुकुट, कमर पर काछनी, हाथ में मुरलो और हृदय पर वनमाला, श्रीकृष्ण की यह सुन्दर-बानक मेरे मन में सदा बसी रही।

मोहनि मूरति स्याम की, अति अद्भुत गति जोय। 
बसति सुचित अन्तर तऊ, प्रतिविवित जग होय॥

सरलार्थ : देखो, श्यामसुन्दर की मोहिनी मूर्ति की बड़ी अनोखी गति या रीति है। चित्त के सुन्दर दर्पण में वह बसी हुई है, पर सारे जगत् में उसका प्रतिबिम्ब पड़ रहा है।

तजि तीरथ हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग। 
जिहि ब्रज केलि-निकुंज-मग, पग-पग होत प्रयाग॥

सरलार्थ : तीर्थों का भटकना तू छोड़दे, कृष्ण और राधा के सुन्दर रूप का ध्यान कर। जिस रूप-माधुरी से व्रज की केलि-निकुंजों के मार्ग का एक-एक पग स्वभावतःतीर्थराज प्रयाग के समान है।

सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर। 
मन ह्‌वै जात अजौँ वहै, वा जमुना के तीर॥

सरलार्थ : घने-घने कुंज, उनकी सुहावनी सुखद छाया और शीतल और मंद पवन, यमुना के उस तट पर आज भी उस सबका स्मरण हो आता है।

Previous Page  |  Index Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें