हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
मेरी औक़ात का... (काव्य)    Print this  
Author:ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

मेरी औक़ात का ऐ दोस्त शगूफ़ा न बना
कृष्ण बनता है तो बन, मुझको सुदामा न बना

ये हवाएँ कभी पत्थर भी उठा लेती हैं
अपना शीशे का मकाँ इतना भी अच्छा न बना

देख ! टूटे हुए तारे से मुहब्बत मत कर
और गिरती हुई दीवार को अपना न बना

कोई पक्षी मेरे आँगन में न उतरे दिनभर
मेरे भगवान ! मुझे इतना अकेला न बना

अपने ज़ख़्मों की नुमाइश तुझे करनी है तो कर
इल्तिजा है कि मेरे दुख का तमाशा न बना

- ज्ञानप्रकाश विवेक

 

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश