यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद। 

निर्भीक बालक (कथा-कहानी)    Print  
Author:स्वामी विवेकानंद
 

बचपन से ही भय किसे कहते हैं नरेन्द्र नहीं जानते थे। जब उनकी आयु केवल छह वर्ष थी, एक दिन वे अपने मित्रों के साथ 'चड़क' का मेला देखने गये। नरेन्द्र मेले में से मिट्टी की महादेव की मूर्तियां खरीद कर लौट रहे थे कि उनके दल का एक बालक अलग होकर फुटपाथ के से रास्ते पर जा पहुँचा। उसी समय सामने से एक गाड़ी अती देख वह बालक बुरी तरह घबरा गया। आसपास के देखने वाले भी दुर्घटना की आशंका से चीख उठे। नरेन्द्र ने जब देखा कि घोड़ागाड़ी उस बालक की ओर तेजी से आ रही है तो बिना विलम्ब किए मूर्तियों को एक ओर फेंक नरेन्द्र उस बालक को घोड़ागाड़ी के नीचे से बाहर खींच लाए।

इसमें संदेह नहीं की क्षणभर के विलंब से बच्चे की जान जा सकती थी जिसे समय रहते नरेन्द्र ने बचा लिया था। छोटे-से निर्भीक बालक की सूझबूझ व बहादुरी को देख सभी दंग रहे गए।

नरेन्द्र ने घर जाकर जब माँ को जब यह कहानी सुनाई तो माँ ने उसे अपने कलेजे से लगा कर कहा "बेटा, इसी भांति सदैव मनुष्य की तरह काम करना।"

[ भारत-दर्शन संकलन]

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