काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे जब तलक़ ज़िन्दा रहे बचपन को दुलराते रहे
रात कैसे-कैसे ख्याल आते रहे, जाते रहे घर की दीवारों से जाने क्या-क्या बतियाते रहे
स्वाभिमानी ज़िन्दगी जीने के अपराधी हैं हम सैंकड़ों पत्थर हमारे गिर्द मँडराते रहे
कोई समझे या न समझे वो समझता है हमें उम्र-भर इस मन को हम ये कह के समझाते रहे
ख्वाब में आते रहे वो सब शहीदाने-वतन मरते-मरते भी जो वन्देमातरम् गाते रहे
- राजगोपाल सिंह |