मैं था तब इक्कीस का और वह थी अठारह की
हाथी-दाँत-सा उजला था उसका मन और मैं चाहता था बाँध लेना उसकी छाया को भी
लपट भरा एक फूल थी वह और मैं चाहता था उस की ख़ुशबू की आँच में जल जाना
मैं था तब इक्कीस का और वह थी अठारह की जब एक दिन असमय ही सड़क-दुर्घटना में चल बसी वह रह गई वह अठारह की ही सदा के लिए
आज हूँ मैं छियालीस का पर वह अब भी है अठारह की ही
मेरी आँखों में अटका एक अनमोल आँसू है वह मेरी वाणी में बंद एक सुरीला गीत है वह मेरी मिट्टी में बची रह गई एक हरी जड़ है वह मेरी स्मृति के मंदिर में मौजूद एक देवी-प्रतिमा है वह
आज हूँ मैं छियालीस का पर वह अब भी है अठारह की ही
उसकी ठहरी हुई उम्र की स्मृति को हर पल जी रहा हूँ मैं
- सुशांत सुप्रिय मार्फ़त श्री एच.बी. सिन्हा 5174 , श्यामलाल बिल्डिंग , बसंत रोड,( निकट पहाड़गंज ) , नई दिल्ली - 110055 मो: 9868511282 / 8512070086 ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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