इस धरती पर अपने शहर में मैं एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में एक छोटे-से शब्द-सा आया था वह उपन्यास एक ऊँचा पहाड़ था मैं जिसकी तलहटी में बसा एक छोटा-सा गाँव था वह उपन्यास एक लंबी नदी था मैं जिसके बीच में स्थित एक सिमटा हुआ द्वीप था वह उपन्यास पूजा के समय बजता हुआ एक ओजस्वी शंख था मैं जिसकी ध्वनि-तरंग का हज़ारवाँ हिस्सा था हालाँकि वह उपन्यास विधाता की लेखनी से उपजी एक सशक्त रचना थी आलोचकों ने उसे कभी नहीं सराहा जीवन के इतिहास में उसका उल्लेख तक नहीं हुआ आख़िर क्या वजह है कि हम और आप जिन महान् उपन्यासों के शब्द बनकर इस धरती पर आए उन उपन्यासों को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला ?
- सुशांत सुप्रिय मार्फ़त श्री एच.बी. सिन्हा 5174 , श्यामलाल बिल्डिंग , बसंत रोड,( निकट पहाड़गंज ) , नई दिल्ली - 110055 मो: 9868511282 / 8512070086 ई-मेल : sushant1968@gmail.com |